يکشنبه ۲۵ آبان
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پای برهنه در کوچه
کوزه ای به دست
می دود هر سو
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با تو بهارانم، دلبر و جانانم
بیتو زمستانم، سردی و زندانم
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خوابم
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اما نه در رخت خواب
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بی حس شده ام
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نه به ضرب شلاق
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کشتن مرا
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افتاده ام در یه باریکه
دنیایم دراین درز،
چقدر تاریکه
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ای بنور اشکار ارباب شاهان یا حسین،
دلهای عاشق تسلیم مهر به پیمان یا حسین.
در تنگنایم وز ست
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نورِ دانش، جهان را شد دلیل
سایهاش اما کند شب را اصیل
چو حرمت نورش افزون کنیم ما
آن را در کام ظلم
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قسم خوردم توراه عشق به چشمات بر نمی گردم.......
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ای گل ناز که در ناز نداری همتا
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از خدا خواستم فردایی دگر
پس بدو بستم امیدی دگر
در نهانم آرزوها کاشتم
من به فردایی دگر چشم داشتم
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یک غزل و يک رباعی از مهدی ملکی الف
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«پری»
پسرکی رنجدیده،
در کوچه نشسته.
تنها و سرخورده.
پیرزنی مهربان،
به زیبایی طاووس،
به ا
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من آن گرگم که بالان دیده ام بسیار و بیگاه
که هرگـز بـر تَـلـه دم را نخـواهـم داد و آگاه
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هر که از ما میکند یادی، نگه دارش خداست
هر که ما را میکند یاری، پر از عشق و وفاست
حسین_قالیباف
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می دونی چقدر سخته
چقدر تلخه
نشستن تنها
درغربت بیداد
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قصدِ دل دارمْ لبخندیْ بِنِشانَمْ برایِ خدا
توبه نگویمْ غُصه نگویمْ هر چهْ مالِ خدا
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سالگرد شهادت آیت اله رئیسی
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اندازه قوس کمرت نقل عددها
مجهول جدید همه هندسه بلدها
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چای ریختم نوش جان بکن سرد میشود
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ای نگاه چشم هایت رونق بازارها
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دارد دلم در زیر غم ها خاک می شود
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بازم دلبر زیر نگاهش چشم رهگذر دارد
هم رد پای خود عبوری اشاره گر دارد
ای رهگذر کنار بزن همه پرد
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تصورکن ، سِیلی اومده زجنسِ تگرگ ،
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کودکان غزه
مادران دنیا دیوانه شده اند
شرمنده وا فسرده
غرق در دریایی از درماندگی و ناتوانی
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در آغوش نیستی مرا باز نواز، این مرده که با تو گوید راز.
روح در زندگی خاموش و بیصداست ، در مرگ نوای
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مرا شمشیر بر دوش و دلم بیتاب دیدار است.!
که یار مه لوای من درون ارگ بیمار است.!
قراول بو
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چقدر شعر برای نگفتن آوردم...
چقدر دفتر بی انتهای بیآغاز...
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✍️تصنیف سرا: م.مدهوش(یامور)✨
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بگذار پس از این همه
بیراهه پس از راه
چون اشک به چشم آمده از شوق
به تمنای تماشای تو باشم
یا که چو
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آلباتروسهای شمال
در انتهای راه شیری
به موهایی نخ میدهند
که هنوز به بلوغ نرسیده
بزرگ شده
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● نام شعر : کریم🕊
به کنجِ پنجره میآید و پریشان است.!
پرندهای که به دنبالِ تکهای نان اس
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چرا هر لحظه بدتر می شوم از داغ هجرانت
بیا برگرد ای دردانهام جانم به قربانت
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خود بسازم، بر اندیشه ی خامم، قفسی
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شنیدم جوانی که سرمایه داشت
ز دارایی این جهان مایه داشت
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ای دلیلی ِ همه حال ِ پریشانی ِ من
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مثل خونی به رگم عشق تو جریان داری
همچو من عاشق بیباک دوچندان داری
دختر شهر سمرقند هراتم دیگر
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شعری عارفانه و عاشقانه از مهدی سلمانی
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گاه ما را آشنا می کنی با وصف و وصل یار
گاه بر سر می زنی یکدم همچو یک سر به مار
میروم دست به عصا
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رو رُخ پاک زشت ،خوش رو پاشنه پا رو می کشم
عکس پاک دل را، آینه کاری زیر هر کو می کشم
اعتماد ، فرد
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من نه آنم که شما میدانید
هم نه آنم که خودم میجویم
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شکر خدای مستان آخر به سر برم جان
بشنو هزار دستان آخر به سر برم جان
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من که در لاک خودم بودم به دردم مبتلا
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درمحفل رنگینی ،
آمد به میان لاله
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خدایا من ندانستم ندانستم کِه داور است
تو گویی مِی تویی و خلق ساغر است
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درود و عرض ادب
تویی تنها امید من که دائم مهر و تسکینی
تویی آرامش جانم ، پر از امید و خوشبینی
م
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در حریم امن تو آهوی دل صیاد شد
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اگر روزی شادی بر من چیره شود،
گمان مبر که زخمهایم التیام یافتهاند؛
زخمهایم بسیار گسترده و عمیق
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چشمِ خود میبندم و تاریخ اکران میشود!
صحنهی کوتاهی از ظلمت نمایان میشود!
شاهِ قاجاری و در
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به روزی که هجرش کند خشک نای
کزان دوریاش مرگ خواهی به جای
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در پیشِ چشـم هایم ، آن مـَرد بی بـدل مــُرد
وشعر و شور و عشق را از جانِ بی بدن برد
وقــتِ سقــ
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مینویسم برای فرداها کشورم مردم نجیبی داشت
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تو را می بینم و نیستی کنارم
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شاید اگر من دورتر بودم ز چشمانت....
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نافذ اقلیم دوست دیر صفاست
همه عمرت بکوش باشد ناب
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بریده ام ز کارتان ، ز بامتان پریده ام
چو اسب سرکشم که از خیالتان رمیده ام
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وقتی که مرهمِ جنون مرگِ تپش هایِ تن است / بر دارِ آخرین غزل انکار میشود حصار
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چقدر غمگینه هرمزگان تو این روزای آشفته
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کدام بزرگتر است
اندوه مردن
یا اندوه زیستن
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تو زندانبان و من در تار زلفت گشته زندانی...
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رفتم چهارشنبه بازار ، خودم دنبال سبزی و گوجه ، سایه ام اما افتاده روی کتاب های شعر . منم بهم برخورد
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بخوان که شعر گفتهام برای کوچه باغها/
نفس کشیدهام پر از هوای کوچه باغها
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جایگاهِ عشق.حکیمانه 2
دل اگر خالی کنی از کینه ها
جایگاهِ عشق گرددپر صفا
توزخود بینی بکن خود را
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فکرنمیکردم یه روزی بیفتیم ،
به دست دژخیم
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: قلم مشکن
قلم مشکن، مرا ز خونش صد نشان دارم،
ز جان سوختهی عاشق،بسی داغ گران دارم.
مرا ب
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عاقبت از عشق تو مجنون صحرا می شوم
میکشم دست ازخودم همچون زلیخامیشوم
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می پرسی چرا همیشه غمگینم؟
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