چهارشنبه ۱۵ تير
شعر تصنیف
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شب آه و گریه و شب هق هق بارونه
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سال نوهم که رسید و ...
همه مهمانند رشت
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امشب دل من گرفته،خواهم...
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عمر و جوانیم را،پای عشقی داده بودم که،سرانجامی نداشت
من بوده ام مجنون،که مردم مجنون را،مجنون گذاشت
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روزی که ز جمع دوستان دور شدیم
در چشم همه وصله ی ناجور شدیم
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سلام و درود
از ازل عاشق خدا بودم
سپس عاشق وطن شدم و آدم ها
که تازه رسیدم به شاعری و هنرمندی.
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من برام هیشکی، ارباب نمیشه
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ای تار من غمخوار من برکن زهم تو رشته افکار من
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ای تار من غمخوار من برکن زهم تو رشته افکار من
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كنون عيد آمده اى گل بيا با من به صحراها
نسيم نو بهاران شد رويم تا كوه و درياها
منم آن بلبل عشقت
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من از اِستاره پرسیدم ....
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از من خسته نگذر نذار که رسوا بشم رسوای ره رهگزر
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هیاهوهای تلخ روزگاران......
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دیگر نمی خندم
عهدی نمی بندم
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وقتي كه چشمهاي نجيبت نگاهي رامعني كند
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چه دوری سختی چه دوران تلخی، چه بی انتها روزگاران تلخی که بی تو عزیزم گذر میکند
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ايران ميهنم ،ايران كشورم
مهرت در دلم ،شورت در سرم
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ای گل و باغ و بهارم
هجر تو برده قرارم
من به کجا تو کجایی
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به کوه رفتم صدای خنده های تورا در گوشم زمزمه کرد...
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