يکشنبه ۲۵ آبان
شعر شعرناب
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زهرا به میدان آمد اما
یک چادر خاکی میسوخت
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رفتی از پیش من اما چه زود...
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باتو آه
تابه خدمت
گلو ..برسد ،
بغض بندگی
خاک شدنی
نیست که نیست...
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بهار عمر من بی تو خزان شد...
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بیاواولین مصرع ابیاتم باش...
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من آن درویش پیرهن چاک چاک شده ام
در بی خبری غربت از قربت خویشتن پاک شده ام
آواز دل انگیز ت را بن
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ما به مه روی تو دل باختیم ...
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خسته م از دوری و این شبِ گنگ و بی انتها
میترسم نبودنت برام بشه عادت و سردی نگاه
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شهدخت گیسوم چشمِ شب ، صحرایِ گیسویت کجاست ؟ / شیطانِ روحم تا ابد ، نفرینِ عشقش میشوی ؟
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پشت ترافیک که هی چراغ و بوق بود
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بعضی آدمها با کاغذ، رنگ و ساز، روح خود را به جهان میدمند
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گزیدهای از اشعار سرخابی از چند کتاب.
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ای که رفتی و ندیدی، من ز تو چه ها کشیدم
کَس نگفت تورا عزیزم،چه زمانه آه کشیدم؟
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ازمن وتو نه تویی ونه منی می ماند.....
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پرستشِ رقصی حریص با پای بستِ واژه ها /این شُرشُرِ افسانه ها ، چترِ سکوتم را شکست
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کثیفی ز رخسار پاک نمودیم و
خود گشتیم کثیفی و مردیم
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مانند قناری از میله های قفس
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این حصر را تنهاتر از باران تحمل میکنم / وقتی که پایانش تویی ، ترسی ندارد از حصار
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تقدیم به سایه ی خودم ، سایه اسم دختر نیست بلکه سایه ی هر نفر منظور است
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وقتی که مرهمِ جنون مرگِ تپش هایِ تن است / بر دارِ آخرین غزل انکار میشود حصار
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رفتم چهارشنبه بازار ، خودم دنبال سبزی و گوجه ، سایه ام اما افتاده روی کتاب های شعر . منم بهم برخورد
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با مسحِ خون بر چهره یِ اکنون گریختم از عدم / این زورقِ شکسته در تلاطم است ، ساحل کجاست ؟
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آنقدر نوشتم تا که هر معنا به مرگ دلبسته شد / دامان موعودی که نیست ، قتلگاهِ روحِ واژه شد
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گیلاس خشک خانهی ما هم شکوفه داد
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آنسوتر از دامانِ تو ، ای ماه پیشانی هنوز / هم خانه ای از جنسِ تو ، در انتظارِ سایه هاست
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خسته ام از هوای چشمی که...
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آنسوی مرگ ، آنسوتر از سوسویِ گندمِ هوس / در خانه ای از جنسِ تو ، مانترایِ دیدار خوانده ام
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بر جایْ جایْ این حصار لبهایِ خون آلودِ تو / بوسه زده اما ندید چشمی بهارانِ تو را
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.. اما آنکه دیوانه کرده ام
که بار ها می کوبم و
باز پروانه می مانم..
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برای هر کسی که یک ستاره هم در اسمان ندارد
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به سوگِ دختِ شه شهبانویِ شهری ورایِ شعر / لبم ماوای نامت شد ، پناهِ هرمِ یک بوسه
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عشق ِ تو کودتا کرد ، در کشور ِ دل ِ من
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زهرخند خورشید در افق ، جولانِ یک معنا و مرگ / تقدیرِ شعرِ زندگی محکوم به وهمِ یک سراب
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دل به دریا بزن و عهد و قراری بنما۰۰۰
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مسخِ حقیقت ، دارِ عشق ، واژه اناالحق گفته است / سنگسار کن کفر را ولی گویی خدایت مرده است
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قطره دریا می شود
اگر خدا نظر کند
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بر دارِ گیسویت به مرگ ، محکوم غزل هایِ هراس / این آخرین غزل ، بنوش ، خونش زِ لبهایِ من است
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این خانه زندان است ولی در چکه چکه یِ زمان / من با کدام زبان تو را در واژه تکرارت کنم
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در مسحِ مه آلودهِ از هراسِ سایه هایِ ترس / معبودِ واژه شد لبی که از لبت بهانه خواست
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بانو قدم بگذار تا تن پوشی از نامِ وطن / بر تن بپوشد این جهان ، گمگشته ام در این حصار
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یا خدای احوال
نزدیکترم کن
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دخترِ احساس من! همواره در حسّ دلم،
دوستت دارم؛ عزیزم! نازنینم! مهربان!
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راهی به سمتِ خانه ام از کوچه یِ نامت گذشت/تسکین قلبم یک تپش از نامِ بی آرامِ توست
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شعر ((صد بار )) از سجاد شهرستمی
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الهی من به سینه ناله و فریاد دارم....
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از درون شب تباهی می وزد
زندگی بر پایهی ناسازگاری میزند
ورنه آخر به غلط پیموده شد
برده باشم لذ
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رستخیزِ شعری که نوشت بر دارِ تنهایی زِ عشق / بر دارِ ترسی که بر آن ذکرِ اناالحق خوانده است
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هرگز به وهمِ واژه ها قبل از تو ایمانی نبود / رستخیزِ لبهایِ جنون تو را بهانه کرده است
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