يکشنبه ۲۵ آبان
شعر زمان و عمر
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ای جوانی گم شدی در شام پیری و ملال
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بی تو همانگونه ام
که رفته ی...
با تو و بی تو رفتن"
خانه ی دلم
مشق آتش می نگارد
بر چلهچله های
غ
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دل کندت با جان کندم فرقی ندارد جانا
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در این شهر قدم میزنم،
آهستهتر از رؤیا.
روی هر خانه را میخوانم،
مثل کتابی بینام،
که نویسندها
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جهان را ز چشم «مجازی» چشیدن
نکرده سیاحت، «تو حیفی عزیزم»
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چکه چکه درد می چکد
از کودکی
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مـــــادر بــــــــــزرگ صفـای تـــو
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و کابوسها را رها کن رها شو
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زندگی کردن من، مردن تدریجی بود...
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به نام خداوند خورشید و ماه
بگرداند این چرخ و این دستگاه
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* چرایی زندگی
راه دشواریست
نامش زندگیست
در عبور از باغهای پُر گل این زندگی
ر
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گذشت ایام نا موزون تو هم بگذر ز ما اکنون
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حال مرا می بینی از جانم چه می خواهی
از درد و غم بر خویش پیچانم چه می خواهی
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"صبح"
خورشیدِ شرارهریز،
بیدار
و فریاد میزند زندگی را.
قلم زرین نگارم، چه نویسا شده
بر دفترِ
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ترک برمیداشت هر لحظه
تن پوسیده زمان
در صورت کال کرم خورده
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راه میرفتم،
با سایهای که مرا دنبال میکرد،
در خیابانهای بینام،
با دیوارهایی که حتی پژواک صدای
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* فردای سیاه
روزگاری چون گل
شادمان از امروز،
بی خبر از فردا
که پس هر رویش
رفتن
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سحر میخـواند قنـاری بر درختـی
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* همچو شمعی در باد
همچو شمعی در باد
زندگی کاش
برافروختن شمعی بود
که برقصد
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چشمِ ما بیحسرتِ عُمرِ دگران شد، ای رفیق
شورِ ما از خویشتن برخاست، نه از باغِ رفیق
در گذرگاهِ جن
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* هیچ تا هیچ
در آیینه بخود نگاه میکنم
خسته ام از نرسیدن
از بدنبال هیچ دویدن
از بیدا
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شعر سپید بیشتر بمان ابوالفضل محمودی | تابستان ۱۴۰۴
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به گوش خود شنیدم طعنه می زد
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زندگی
بخاریست بر شیشه،
که با هر نفس مینشیند
و تو
به اندازهی هنرت
نقشی دلخواه بر آن میکشی. .
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به روی سنگِ مقابر، به خطِّ نستعلیق
نوشته دهر وفایی به کس نکرده رفیق
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از قلب بیمارم مپرس
خستگی دل یعنی چه؟
از قلب تنهایم مپرس
آتش عشق یعنی چه؟
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یــادش بخیـر اون قدیما آسمونــا آبـی بودن
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عمر ما میگذرد
لحظه ها، ثانیه ها
گردش دوران زمان
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قطره ای بر گونه ام نشست
نه از باران،
از یادهای که هنوز کارمند.
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مـاییـم و سـرگـذشـت شـکـوفـا و کَــبـکَـبِـه !
خوشباد موسمِ خوشخوشانی کهبرنگشت
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هوای ابری و زمین باران زده
صدای جیرجیرکها،
همچون نجواهای کوچک زمان
بلند است
تو در میان این س
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حالا که دلی هست، دگر حوصله ای نیست
گر چشم تری هست، دگر حنجره ای نیست
این باد که یادآور ایام قدیم ا
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از دل پستو حکایت می کند گرد وغبار
کوخ رعیت، کاخ شاهی هر دو روزی رفتنیست
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در عَصری که ؛
خُدایانِ (اَلگوریتمی)
حُکمرانان عَواطف اند
و شَیاطینِ شَریعت(تِریبون)
خَط دِهَندگا
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دردا که زمینگیر شدم ، مرگ کجاست؟
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دنیا کوچیکتر از اونه که بخوای
خودتو به خاطرش هدر بدی
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یک سند شاعرانه از بخشی از تاریخ کرمانشاه. هم درد داره، هم زیبایی، هم حقیقت.
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تولد، ترانه ای ست، میان خواب و بیداری...
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غزل
شاعرانه_مرگ
مرگ آمد سوی من؛
تا جان ستاند ؛از تنم؛
او ندانست ؛مرده در من؛
نقطه های؛ ر
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زندگی نیست بجز نغمهی جانبخشِ حضور
لحظهای، در دلِ این خاک، رها از غرور
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ای غرق شده به بحر آمال
آخر چه رسد به تو از این حال؟؟
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دُختری ، گوشیِ (آیفون) در دست
با سکوتی جانکاه
داشت با "آیِنه" صُحبت می کرد
وَقتِ خارج شُدن
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در مورد نادانی و مشکلاتی که ایجاد می کند.
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هر چه هست، میگذرد در این تار و پود
سر بنجبان،تمام میشود این رنج و درد
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یاربّ، خالق گُرگ ها و گُل ها
شبیهِ عُشّاق تنها
یامنّ، به حقِّ منّ،
نذر کردم عاشق شوم
غم ها را ا
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نمیدانی غمت با قب بیمارم چها کرد
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یا رب نِگر در چشمِ من با حالِ خود بیگانه ام
خسته دلی افسرده ام دائم پیِ میخانه ام
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خوش آن روزی که این عالم سرآید
همه جانم ز تن یک سر درآید
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ازمن وتو نه تویی ونه منی می ماند.....
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مادر ، مادر ، مادر
واما باز هم مادر که گویند بهشت زیر
پای مادران است
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هوای رودخانه دربند دارم
هزاز آواز با هفت بند دارم
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عروس صحرا میشوم،،، مادر
زود می آیم
اینجا جای ماندن نیست…!!
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زندگی همچنان پیچیده ماندهست
میان جادهها ناگفته ماندهست
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پیرمرد!میراث مانده ازپدر طشت واگن مسی،
گربه ی براق چشم قهوه ای. یک رس بزآبستن سفید
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آدمی تا دَمش گرم دَم او است، نفهمد
که چگونه سرد شود همه دَم و همه او
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زل زده ام به ثانیه شمار ساعت عمر
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نامی که نماند....
روزی بودم…
در شلوغی بیپایانِ جهان،
نفسی که بیصدا رفت،
نگاهی که در ازدحامِ
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نه به اغیار دل نه بر غدار
بست باید که هست استثمار
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بر قلب جگر سوخته ام آب بیاور
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خیابان
بیانتهاست
مثل اندوهی که
در چروک پیشانیاش
خانه کرده.
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ضیافت کرکس ها
بر سفره ی جسمی نیمه جان
مست لایعقل از خون نیمه گرم
کف آلود...
خزیدن مهر در گوش
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وقت آغازه و پرواز
وقت اینکه برسیم ما
به همون جا که تعلق داریم
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غم مخور از روزگار، آمده فصل بهار!
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بذار هرچی فاصلس
بینِ ما تموم بشه
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به زیبایی هرچه تمام تر با جهان سخن گفتیم
بارش فکری زمان را همچون بارانی به زمین دوختیم
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آدمی چیست ؟ به جز توده ی درد
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بگردان جام را افسانه ای خرسند باز آور
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