يکشنبه ۲۵ آبان
شعر آزاد
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پایان این تعزیه کجاست ؟
پس تکلیف نمایشهای کمِدی بگو چی شد ؟
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به کجا مینگری؟
در افق چیزی نیست
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تَـفـتــیـشِ نـگــاهِ فـتـنـه انـگـیــزِ تــو از
صد زخمِ زبان و جرم عمدی بَـتر است
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اینجا، جایی برای ماندن نیست....
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روباهی به بوقلمون گفت :
چقدرما شبیه همیم
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تو همتبار منی و تو در تمام منی/
تو در تمام تن من خودِ خودِ وطنی
...
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چون هما ،
استخوان را قورت میدهم ، تا ...
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یکی دوست دارد دلش با تو باد..
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تو دریایی
من با ارفاق، یه قطره
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اینکه به کجا میروم هیچ برام مهم نیست
مهم اینست که یارم بهترین مهمان نوازست
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«زوال»
این تن خسته و بیجان را،
این دل گمشده در خزان را،
این روح آزرده از زخم زبان را،
این چش
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فنجان شکست و قهوه ی تُرک ریخت
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کسی با یک نفر بودن نخواهد
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دریا شکافت و، یهود رد شد ازآب
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با آتشی که در دل من سرد میشود/
با حس خستهای که خود درد میشود/
آن مرد را که یکشبه نامرد میشود/
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هنر همون چیزیه که ،
خوب کنه حالمونو
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نبودن،
نخستین صدای جهان بود
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شاید بیاد توو پائیز،
بارونی خوب و ریزریز
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(شعری در رثای حضرت فاطمه زهرا (سلامالله علیها)
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همچو مرغی در تمنایِ عُروج
غوطه ور شد زندِگانی در خیال
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چندروزیست شعرم نمی آمد...
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به گفته ی مولوی :
" من آزمودم مدتی
بی تو ندارم لذتی "
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در این هنگامه حزن و اندوه، و در آستانهی ایام شهادتِ جانسوزِ بانوی دو عالم، صدیقهی کبری، حضرت فاطمة
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سنتورم دستمه ، سازِتو بردار،
تا بریم پیک نیک
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آمــدم لــقـمــه بــگـیــرم کـه گـلــوگـیــر شــدم
مـن از ایـن زنـدگیِ نـکـبـتِ خـود سـیــر شـدم
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قلبش شبیه نقشهی خاورمیانه و
زخم هزار درد که بر آن نشانه و/
اما هنوز در تپشی عاشقانه و/
در فکر دل
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درآرامشِ صدات
دراینهمه امتداد
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«راستیای در کار نیست، تنها برداشتهایند که هستند.»
(برداشت آزادی از نیچه)
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من همان حکایت همیشگی
خط و منحنی و سازه های شاعرانه ام
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من بودم و پایی که میگریخت ،
از روزگارخود
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یک من درون شعر من باقی
یک من شبیه حضرت باران
شورآفرینِ خسته از تیشه
با کِروها و خط کش و
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دلا امشب که آید زینب کبری (س)
آسمان پر ستاره نور باران می شود حالا
نور مهتاب چه روشن کرده بالا ر
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گوارشِ گزارشِ وقایعِ اتّفاقیّه
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گِرد مغزی بس است ... شاید هم
این جهــان را رها نکرد ایزد !!!
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بی هدف رفتن به آغوش خطر دیوانگی ست
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درمیان آسمان ،
درمیان ناهید و پروین و بهرام
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چشمت روشن آقای عبید زاکانی
شهرمون پُرشده از موش و گربه
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دلتنگی سفر به گذشته نیست..
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زِ این خطبه های انکار
زبان ها مو در آورده
سمع ها در اضطرابند
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چه آسان ،
خود را از یاد میبرند میگساران
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از خدا خواهم که مانم بر سرشت
تا شوم در خانه ارباب خشت
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در وصف فردی از جنس فراغ از هنجار ها و قید و بند های جهان بیرونی...
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خیر به خلق رسانده ای ، خیر ز خلق ندیده ای
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کو جوانی ؟
حس وحالی که دیگه نیست
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شاهیست بلندقدر و والا گوهر
کِز هیبت او خم شده هر افسر
اما چو رسید پیش شاهی دگر
او نیز فرو برد نگ
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اسبابِ هَوَس بازیِ دستی شده بود
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از عشق پرسیدم: سر چند نفر را به باد داده ای
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برای هرچه در دنیاست ،
یکریز غصه میخورْد
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همگی تنگی نفس داریم، زندگی حالت آنرمالی ست
خانه هامان پر از وسیله شده،پس چرا زندگی چنین خالی ست؟!
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مرد ماندن ریشه میخواهد تنومند و کهن
در پـنـاهِ لـطـفِ یـزدان اجنـَبی با اهـرِمَـن
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شاید تویی
که سحرگاهان،
چو قطرهای شبنم،
روی برگهای سبزِ نیلوفرِ پیچان
مینشینی..
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مثل یک بارقه ای، آمدم رفتم
تو ندیدی
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مثل سکوتی منتشر در غربت فریادها/
مثل صدای زمزمه در های و هوی بادها/
مانند شعری ماندنی در توبهتوی
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ایران خانم ،
آبستنِ حقایق بود
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خواهم، که تو را فرخ و دل شاد ببینم
این سرو سهی توس و سپیدار ببینم
خواهم که در آن جامه پر مه
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گنجشک پشتِ زندانِ قفس با پرخاش ،
جیک جیک میکرد
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ماه از آینه پرسید، تو زیبایی یا من
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برای ما ایرانیان ،
مهم راهِ علی ست
چه باک از ظاهراً باختن
که سرمشق ما پهلوان ،
پوریای ولی ست
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من روستای کوچکی را ترک کردهام،
که پوسته آهکیاش
در روز تولًدم ترک برداشت
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یه طرف آهنِ مِسمار
یه طرف برکه ی سوسمار
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در این فصل پر تشویشِ پر آشوب
مرغ عاشق خسته و تنهاست ...
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مِه است و ماه ،
پنهان شده درپشتِ مِه
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بـخـورم و بــاده و ســوگــنــد بـه تـلـخـیِ شــراب :
گـهوگاهی به هـمیـن تـلخـوشِ نـوشینـه ؛ خـوشـم
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