شنبه ۱۲ آبان
اشعار دفتر شعرِ گیتار بی تار شاعر یزدان ماماهانی
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ظلم " هرلحظه به یک پاشنه نمیچرخد در "
جـای بــاز مـیکــنــد و هــرز شــود لـولایــت
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گـشـود چـشم چـاکـرای ذهنـم ، بدیـدم :
" جـهان را چو سـطل و نـهان را زبـالـه "
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او " کــبـاب " مـیخــورد !!
مـن " کـبـاب " مـیشـدم ..
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از اینکه درک کردم
و درک نــشـــدم ؛؛
درد مـیکــشــم ..!
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درودِ جاویـد و پایـه بر کسی که دلبنـدِ میهن است
بگیرمش از شـرف طلا هر آنکه فرزنـدِ میهن است
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ضجّـهام را کـوه شنیـد ، پـژواک داد :
" آهدرد " و " واه درد " و " وای درد "
نـازنـیـن عـمـرم نـ
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─┅═༅𖣔📖𖣔༅═┅─
فــضـای سـبــز بــودم ، بـچـه تُـخـسـی :
بــدیـدم سـمـت گـربـه سـنــگ مـیـــزد
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یکی در وصف عشـق ، سر داد چکامـه
یـکـی هــم بــهــر یــارش داده ،، نــامـه
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گـاهـی درمـانـگـران ؛ بـیـمـارانِ
" خـودبـین و مـنیّـت هـستنـد "
اغـلــب پـزشـکـهـای کـشـورم ،
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مـیدانـیـــد درد چـیـسـت ؟
درد یـعنـی در کـنــار مـوتــل قـو
بــایـسـتــی و عـکـس یـادگــاری
ب
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پــرســیـــده مــلال و پــاســخــش دادم زار :
دلـخـوش به چـه هـستی ؟ بـه مـلال بـسیـار
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دیـکتـه به غلـط شـد مَـثَلـی ، بـاید گـفت :
" شاهـنامه مـزاج پارسـیان خوش باشد "
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" مـسیـر روزگار ما خـلاف دلـخـوشـی گذشـت "
بِـدَر بـگـردد ایـن خِـلـل ؛ بـه درد مـا نـمـیخــورد
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آنـجـا کـه سـکـوت ، رقّـاص لـبـهـاســت !
آهــنـگ و ســرود رقــص بـیســاز گــردد
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بـه طــرز فــجـیـعـی ؛ خــرابــم بــکـردند
مــلامــت شـنـیــدم ! شــمـاتـت نــکــردم
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شهر به شهر و کو به کو و راه به راه و مو به مو :
مـا کـه گـشتـیـم و نـجـستـیـم آدمـیـزادی ؛ نـگـ
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تـصـویــر آدمــی را ؛ کــردم چــنـیــن نــگـارش :
" رُخ از بـرون پـریـرو ؛ دیـو از درون کـشیـدم "
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دژخـیــم مــنـشـی ؛؛ آیِــنِــۀ عـبــرت و پـنــد اســت
ای کاش نـگـریـسـت و تِــمِ " آدم شـدن " آمـو
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با تنـد و شـتاب چو بـرق و بـاد ؛ پـیشـاپیـش
بــاز گــاه شــمــار مــژده بــداد ؛ پـیشـاپـیـش
بـ
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حـکـایـت کــنــم ؛؛ بــود یـکـی را پــدر ..
از آن مــانــده مــیــراث یـگــانــه پـســر
....
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سـخـن هــر قـدر زیـبـا هــم کـه بـاشــد :
مـهـم کـردار و سـرسـخـتانـه ؛ شـک کـن
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یک روز میآیـد ، بلی ؛ سر میکـنی بی من ولـی :
" امـروز یـادم کن که فـردا نـیستـم ، یـادم کـنی "
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میتـوان بـا سیـم و زر حـتّی شـرافـت را خـریـد
"اسم و رسم بـرهم زدن هم مادی و مالی شـده"
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پـشت در ، ناآشِـنایـیست بـاز کن !
غـصٌـه ؛ " یـزدان ماماهانـی " مـنـم
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حالِ من حالت محکومیت محکومیست :
رأی صـادر شده از سـوی قـضات اعدامش
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ای کـاش زنـدگانی فتـوکـپـی بـداشت
روزهای خـوش رفتـه کـپی میشدنـد
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چه نرخ و سود نیرنگ و سیاست رفتـه بالا
هر آنچه قـیمـت انـسان باشـد ؛ ما نـداریـم
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سـهـم مـن و سـهـم تـو از ایـن جـهان :
شـیـون و تنـهایـی و درمـانـدگـیسـت
" زنـدگـیِ" مــا بـگـ
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چون خودروی نـیسانـم و بار یَـدکـم " رنـج "
هــردم کِــشَـم هــمــراه خـودم بـار یـدک را ..
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آنــکـس کــه لـبـاس ادعــا را پــوشــیــد :
مـادام ز نــکـردههـای خــود ، لاف مـیزد !!
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تــن و کـالـبــدم را عـمـیـقـاً شـکافــتـم
کـسـی جـز خـودم را درونـم نـیـافـتـم
ز مـن روی بِـگَـ
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نـمـیشـود ایـن غـم و سـوگ انـگار تـمـام !
از این مـلالِ بـد سـریـش ؛ بـایـد گـریـسـت
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مـگْــذار ؛ گــذر چـشــمِ رهـی ، اُفـتَـد بـر :
" چــار راهِ خـیـابـان نـگاهـت ؛ جـز مــن "
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کاشکی انسانیت لـوح و تقدیـرنـامه داشت
بهر کس مـیشـد نصیب اهل زورگویی نبود
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هـرکـسـی را طبـق مـعـیارش بـسنـج
زیـر بـنـایی را ؛ ز مــعـمـارش بـسنـج
موش را در فاضـلاب است ؛ ج
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از خنـدهٔ تلخ من تو خـواهـی فـهمیـد :
سـازمـان حقـوق بشـری ، جـوک باشـد
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بـر دامــن گـل ، طـرح تِــمِ خــار زدنــد
بــر چـوبـۀ تــرس ، امــیـد را دار زدنـد
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گر" شرافت " نوعروس و " راستی " داماد بود:
" آدمیّـت " زاده میشـد حـاصل از ایـن ازدواج
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زمـان ؛ ای کـاش راه بـازگـشـت داشــت ..
به دورانـی کـه خـوش بـودیـم ، بـرگـشـت
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از دشمنان بیمی نبود از دوست باید باک داشت
از ظاهر خوشچهرهای که باطن ترسـناک داشت
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پـمــپـاژ خـون ، تـنـهـا کــارِ دل نـبـاشــد ..
تـا دلـکـشـی دیـد و کـرد آغـاز بـه تـپیـدن
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تـا زمـانـی بـدهــد کـوسـه دمـادم جـولان :
تُـنـگ دریــای قـشـنـگـیـسـت بــرای مـاهـی
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گـلـی خـوش رایـحـه در گُلـسَـرای زنـدگی بـودم
گـلابـم را گـرفتنـد و زدودنـد رنـگ و بـوی خـود
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بــس گـفـتـۀ بـد گـفـتـه شـده دربــارم :
" زین پس خودم را به خودم بـسپارم "
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جـهـانِ ســازگــر و نــاســازگــاریـسـت ..
یـکی را نـاز بـخـشیـد وان یـکی تـاخـت
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آمــد نـدایــی از لــب گــوری شــنــیــدم :
گر آتـشـم بـاشـی ، شـوی خـاکـستـر خـاک
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شـمـشـیــر زبـانــم ؛ لــبــۀ تــیـز دارد ..
خواهی نَـبُـرَد بـکش کـنار ، رُک هستـم
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پـردهایسـت حـائـل مـیان سلطـه و مـردم ولـی :
واقـعیّـت گفت : پـشتـش ؛ ماجـرایی دیـگرسـت
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بـکش مـردی کـنار پـنجـره ، ایسـتاده غمـبـاد :
تــمـاشـای غـروب سـوخـتــهٔ آدیـنــه ؛ نـقــاش
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انـدوه مـن دهـان نـخـورده آشیام :
دنـبـال بِــبَــنــد و بـگـیــر ؛ آمــدی !!
آفـتـاب خـزانـم
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گـویـنـد ؛ کـه روزی آورنـدسـت ، مـهـمـان
اندوه که مهمان منست ، تکلیف چیست؟
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مـن ؛ بـوتــهٔ آفــتـاب زدهٔ بـیبـرگـم
دیــوار فــرو ریخـتــهای از اَرگــم ..
کشتـه شده زندگان
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مـن هـمان بـازیـگـرم وقـتـی نـبـود :
نـقـش خـوب در سـینـمـای زنـدگیـم
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جانزخمی و تنخطخطی و دلخونین :
" بـا درد قــرارداد جــهـانـی بـسـتـیــم "
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آگاه نـشـد هـیـچـکـس از حــال پـریـشــم ..!
در گـور تـنـم دفـن و کـنـون مـردهٔ خـویـشـم
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اینکه دوراندیش نبودیـم جای هیچ تردید نیست
( زخم امروز نیشتر از فردای بیتسکین ماست )
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در ایـن دنـیـای پـُر جـرم و تـوحّـش
نـمـانـده ذرّه مـثـقـالــی دلِ خــوش
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سـاعـت هم با دغـدغـه میگـذشـت و شـهـر :
وقتی درهـم برهَـمَـست ؛ از چه بایـد گفـت ؟
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پُـک مـیـزدم و شـعــر سـرازیـر مـیشـد
" بـا هـر نـخ سـیـگار ؛ سـرودم بـیتـی "
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روده بـرهـم بـخـورد ، مـعـده بـهم میـریـزد
نشـت دارد به گـمان خـون جگر ؛ مـشکوکم
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یاوه گویان دگر حرف نبافید بس است
این همه پشت سر خلق خدا انگ نزنید
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آن سـوی خـطّ مـرزی ، هـرگـز نبـوده دشمـن
در خـانـه کـرده لانـه جـرثـومـههـای افـسـاد
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ارغـوان بــودم ؛؛ کـویـر زاده بـه امـّـیـد ســراب
پای تصویری که واهی بوده ، خشکیدم ؛ چرا ؟
آتـشـ
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بنویس قلم گورست دنیا و خوشیهایش
آرامش ما را ظلم تبدیل عزا کردش
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آنـقــدر پـریـشـان و مـلــول و خـسـتـم
" یک ثـانیـه دنبـال دلِ خـوش هستـم "
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هم خوبـم و هم بد ، بد و خـوبی ز من آمـوز
یک عـبـرت و صـد پـنــد ادیـبـانـه ؛ منـم مـن
گـاهـی تـِـم
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چـو حجـم کـوه ؛ بسا خوبی رسـانـدم
بـه قـدر کـاه ؛ ز مـن سـر زد خـطـایـی
توجـه سوی کاه جلب گشت ،
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تـفاوت نـیسـت مـیان بیتـفاوت با مـترسـک !
من از آن بیخـیال شِـبـه مـانکـن ، میهراسـم
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ای دوست بر دشمنـت متّـکـی بـمان
هـرگـز با آشـنـا ، هـمـسفـر نـبـاش ..
بــیـهـوده راه نــرو ؛ ردّ
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گــورکَــن و دفــن دلــخـوشــی
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عمق شرم و ته ننگ و بُـن خواریست بسـی :
پـادو گـردیـدن و بـرده شـدن ظلـم ؛ کـسی !
نسل ما سوخت و شـد
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درد یعنی آسمان فریادمان را نشنود
درد یعنی گیج ماندن داخل چرخِ فلک
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مـنـم دشـتـبـان تـنـهـایـی و دهـقـان مـکافـاتـم ..!
" فـقـط از گُلـسـرای زنـدگانـی خـار مـیچـیـن
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سـرنوشت ؛ آغـاز تلـخ گـریههاست
در نـهـایـت اشـکریـزان مـیرویـم
فاجعـه آنجاست نمنم بعـد مـرگ
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مـده آب ، درخــتـان بـیــریـشــه را
مشـوسنگ،شِکانبیغرض شیشهرا
بـده نان ولـی نـه بـه دنـدان ش
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آنقـدر مارا به هر سویی رانـده ، روزگار :
شـاعـر تـردیـد نـدارد ؛ راننـده مـیشـود
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چه تریـاک و شیشـه چه گـرد و غـبار
( فـلـج مـیکـنـد ، چـرخـهٔ اقـتصـاد )
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" حادتر از بمب اَتـم ، دشمنیست
کاشـف هردوست بشـر ؛ روزگار "
" زور و زن و زر " هدف آدمیست
با
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