يکشنبه ۲۵ آبان
شعر قطعه
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دل زمن برده است آن چشم فریبای او
اشک ها را در دل تنگم روان کرده است
سینه ام را آشنای درد وغم
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درد دلی با حضرتشان داشتیم، دم مسیحایی زدند و حقیر به ذوق آمده و به وسع خویش هم کلام ایشان شدیم، عذر
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گفته بودم سخت عاشق میشوم
سخت عاشق گشته ام این روزها
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قصّه ی پنجره وشیشه های مه گرفته....
عکس قلبی که برروی شیشه اشک می ریزد...
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غنچه لب های تو جام من است
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من از آغوش گرم مادرم سوی جاودانی می روم
سوی سرنوشتی نانوشته به نام ابد می روم
دراین عصر پر هیاهوی
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درون کهکشانی از مقولهها معلّقم
بیا اِراده باز هم بِبر مرا از این فضا
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این عبور لحظه ها صیاد ماست
صید صیادیم ما بی انتظار
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روزگاری میشناسم بس حقیر
فخر او جز آفت دوران نبود
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چطور می توانستم دنیای زشتم را در میان این همه کلمات زیبا٫ پنهان نکنم…
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بازنشر
با درود در این قطعه معرفی۱۲ قالب اصلی شعر کلاسیک ربان پارسی پیشکش شده است. نام قالب ها داخل
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این جمعه ها به شوق شما زود میرسند
اما رسید جمعه به پایان نیامدی...
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با رفتن تو
مهاجران کوچ خواهند کرد..
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به گوش خود شنیدم طعنه می زد
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گفتمش پرتویی از عشق به جانم برِسان
چهره یِ ماه رُخی دلکَش و جذّاب کشید
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امشب اگربگویم ماه نتابدحرفی گزافه نیست....
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روزگاری در دلم من شوق فردا داشتم
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توو رو از خواب میگیرم
به رویا میرسم، شاهی
نه، قُلابی تو دستم نیست
تو این حوضِ پُر از ماهی
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حسرتـی که ناعـلاج اسـت و ندارد مرهَـمـی
خود بگو جانـا طبیبا چاره بـهـر آن چه سود
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در جبهه ی این جغرافیا، همیشه
شهید بوده ای..
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بی هدف بودم و دلسرد که برگشت امید
از همان لحظه که عشقت به وجودم تابید
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دلم یک " قطعه" شعر ناب می خواهد
رباعی" در شب مهتاب می خواهد
" غزل" یا که " قصیده" یا "مسمط
"دوبیت
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آنقدر برای فتح زندگی نجنگ ..
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باران بزند کاش بر این خاک فسرده
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اندیشه ی مدرنی کز مهدِ خشکسالی است
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اشکِ دلباخته ای در شب مهتاب کشید
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مرثیه ای برای بودن، یا شاید هم نبودن...
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باز هم شب با سکوتی از صدا برگشته است
ردِّ پای تو، ولی این بار بیتصویر شد
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با آنکه رفتی ای جان ، جانم خدانگهدار
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تا نشان وصل گردد درج رویِ سینه ام
مدّتی در پادگانِ عشق خدمت می کنم
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دیوْ بختی در میان خانه بی نام و نشان
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ای عشق من تو را از بین واژگان کتاب های قدیمی یافته ام..
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هلا؛ غاصبگرانِ شومِ صهیون
چموشی کرده بودید و
چو موشی گشتید اکنون
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باران غم از جان من امشب چه می خواهد
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آتشفشان دردم غم از درون کوه است
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از هجوم سگ و کفتار ندارم ترسی
کوه و دشت تو شده بیشه شیران ایران
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میزند باران و غم در سینه ی من شعله ور
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من که از شعر و هنر هیچ نمی دانستم
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می روم راه به هر کوی و گذر سر زده ام..
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عاشقش بودم و هرگز ندیدش آن را
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نه راه خانه در یاد است
نه پای آمدن دارم
نه باج دادم به عاشقی کردن
نه عشق رفته از یادم
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شعرهایی که برایت سرودم، دزد بهترین آرزوهایم شدند..
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دل را به جز خیالت راهی به سر نباشد
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پسر ام البنین علیهما السلام
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هر چه هست، میگذرد در این تار و پود
سر بنجبان،تمام میشود این رنج و درد
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مَرامش بخشش و احسان دلیل و منطقش قرآن
هجومش تندر و توفان شدید و سخت و رعد آسا
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آنکه خـود بویـی نبـرد از حِشمت و انسانیت
از چه رو سر میدهـد بـر ناجوانمردی شـعـار
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ای عشق
می دانم هر گلی در این وطن شکوفا شود، خالق آن لبخند توست..
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موجِ سنگین بلامیآید ازهر سمت و سو
گر تو را مهدی ست کشتی بان زِتوفان غممخور
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قرن هاست که دیگر به موسیقی گل ها گوش نداده ایم..
به صدای درونی زمین..
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پایان ِکارِ دوُر ِجهان آتش است
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درونِ کهکشانی از مقوله ها معلّقم
بیا اراده باز هم بِبر مرا از این فضا
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زمین تنگه، زمان تنگه، همآغوشِ دلم تنگ
بهم نزدیک میشی یا بشم نزدیکِ یه مرگ
صدای نازکِ برخورد چینی
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میلیون ها کتاب از دلتنگی ات در کتابخانه ی درونم خاک می خورد..
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تنم درد تنت دارد ، نمی آیی چرا ؟
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گشته آوازه ات بلند به جود و سخا
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میازار کس را، به نیشِ زبان!_زِفکرِ پلید و، کج اندیشِ خود
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چشمت چون ستاره رخشان و پر شرر بود
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ز لعلت بر لبم داغی ایست
الا یا ایها الساقی .....
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در این قرن شعرها در قلم من نیستند..
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به باران تکیه کن تا نو بچینی
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من اگر خسته و درمانده و بی تاب شدم
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میروم گاهی کنار پنجره
چشم می دوزم به راه بی حوصله
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عجیب چشمان تو تسکین جان است
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تو را می بینم و نیستی کنارم
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جایگاهِ عشق.حکیمانه 2
دل اگر خالی کنی از کینه ها
جایگاهِ عشق گرددپر صفا
توزخود بینی بکن خود را
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