شنبه ۶ مرداد
شعر شعر و شاعری
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عبور اتفاقیات، به سنگهای محتمل
دقیق پرسه میزنی، تفاهمی کبود را
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جان بودی و جان مرا بردی و حاشا نیست
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جان من دور نشو ، دل ندهی دست کسی
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آمدم رنگ زنم چینی تنهایی تو
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گفتی که باز، پنجره ها باز می شود روزی
سازی برای خاطرِ ما ساز می شود روزی
گفتی که کوچه های پراز برگ
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نسیم صبح را بی وقفه بر فرمانِ خود کردم
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دوباره دیدمت در خواب از جان گریه می کردم
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اول از ماندن خیال عشق را راحت کنید
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امشب از حوصله ی بی تو شدن آشوبم
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عمری از بی کسی ام سخت به خود پیچیدم
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برف پیری خودنمایی می کند روی سرم
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برام دیگه این نفسا ، ممنوعه شد ممنوعه شد
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برای ثبت اهدافت نزن جار و نکن بلوا
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تا که چرخاندم سرم طوفان امانم را گرفت
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اگر گوش می دادم؛
بهترین شعر را برایتان مینوشتم!
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بد ت، هیچ درختی به جوانه نرسید
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صدایم ک خداوندا که من از دهر می ترسم
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گر اعتبار،گرآبرویی دارم....
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زمین جای قشنگی نیست راه آسمانت کو ؟
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یک شعر بلند است تماشای نگاهت
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پدری دارم که دستانش در دست خداست
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موهای بی شانه میان باد و طوفانیم
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یک نفر آمد همه رنجِ جهانم را گرفت
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می زنم بر سر دیوان غزل چوب حراج
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برای خوب شعر گفتن؛
باید مستِ مست باشی
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پا گذارید به آرامش و دنیای کسی
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مسخر رام ماست ماه و ستاره
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در ذهن گیج و خستهٔ من یک سوال است
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🌹فاطمه ای مادر پهلو شکسته.....
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کفش های پاره ات را گوشه ای پرتاب کن
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می بینم پابِماهی...
ای شعر زیبا!
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ای که برای بی هنران بهتر از گلی
باور نمی کنم، تو همان آسمان جُلی
باور نمی کنم، که تو با این همه اد
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برو دیگر نخوان در گوش من لالایی ات را عشق
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امشب عددی سوسک از اینور شده رد خانه بهم ریخت
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چشم زیبای تو را آسِ غزل می بینم
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میخوام با تو باشم همه لحظه ها
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عشق از قصهٔ دیوانه شدن می گذرد
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هوای خوب را بن می زند فقر
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عشق و عاشق جان و جانان در غدیر
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قول دادم به دلم نشکنمش هیچ دگر
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من دلت را برده ام اما تو جانم برده ای
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دل می کَنم یک دفعه از منت کشیدن ها
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ای سفرکرده! از چه دلگیری؟
ای که گاهی غزال و گه شیری
بی گمان، در مدارِ این چرخش
غافل
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چون کوچه های جمعه ، بدجوری غریبم من
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گذر عقل به جیب ما خطاست...
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هم اکنون...
فرزندت را به دنیا می آورم!
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راهی شدم این بار کجا ؟ هیچ ندانم
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پیامی هست از من سوی ایرج
ببر ای باد ،جُردن،سوی ایرج
پیامی واضح و گویا و روشن
ببر از جانب دل خسته
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با دلم گفتم که از این کرده ها پروا کند
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می روم از جمع و دنیای شما
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دست هایت را بده تا آسمان پر می کشم
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«مزرعهی متروکه»
سگی را دیدم عوعو کنان،
از جمعی گریزان،
رو به سوی تاریکی بود روان،
دوان دوان.
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فقرچون وارد شود برخانه ای......
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او نمی خواهد تورا ای دل تو بی تابی هنوز؟
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ای دل نبودم من برایت صاحب خوب حلالم کن
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در آن چشمان زیبایت دو دنیا عشق می بینم
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عمر خوشی های دلم همواره کوتاه است
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یک عمر نشد از قفس غم شوم آغاز
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امشب مرا سر به هوا کردی و رفتی
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رقص قلمت زیباست ای شاعر بارانی
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تا بهار از برگ گل ها رونمایی می کند
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عشق آشوب قشنگی است مرا یاد دهید
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قصه از من و لفظِ بیانش با تو
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بودی تو در کنارم اگر، گم نمی شدم
محتاج مهر و ماهِ ترحُم، نمی شدم
در بیکرانِ عالمِ جهل و جمود خود
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عشق امام هشتم عاشق ترم ز پیش کرد
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قلمم... بی آنکه بدانم؛
عاشق کاغذی شده بود...
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تمام ابرها را با هم امشب آشتی دادم
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کلامم امتداد می یابد در واژه ای که مثل سابق نیست
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امشب شب شعر است و شب قافیه بندی
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رقص شمشیرت کجا رفت ای عرب؟
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خداوندا مرا در فقر خویش.....
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