يکشنبه ۲۵ آبان
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نامی که نماند....
روزی بودم…
در شلوغی بیپایانِ جهان،
نفسی که بیصدا رفت،
نگاهی که در ازدحامِ
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باور دارم که انسان، خود به ذاتش بد نیست
چو به راه خطا افتاد، خوی او بر باد نیست
شنید پیوسته
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دِلِ نِکو وَ نارَوا
هَر گَه، نارَوا گَردَد ، یِک سُخَنُ یِک نِگاهَت
نارَواتَر اَست ، زِ هِزا
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نردبانی در طول عمر گذارده ام
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واژه هایی برای گفتن دارم. واژه هایی که همچو آتشی در دل هستند. واژه هایی که قابل توصیف نیستند. قلم از
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پس آن که گم چه باد کز دین بکرد دَوان…
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دوستی دارم که بد شانس و تا حدود زیادی مشنگ است
همه گویند زشت ولی خود گوید که خیلی هم قشنگ است
بر
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آنکه من خواستم هیچ وقت ندادی
صد نفر نمی خواستم ؛ سر راهم نهادی
گر دادنت عکس با خواست من است
گمان
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مانند بهاری تو در فصل زمستانم
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شهرآزاد
مَحزونَمُ ، دَم به دَم ، دِلَم آهُ و فغانی میکُنَد
زِ هِجرانَش، بی قَرار استُ و نافَر
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بغل بگشا
به اَمن گرم آغوشت
تو صادر کنچنین حکمی و فرمان ده
بگو با این دل تنگ منم قدری کنار آید
ن
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همچون سلاخی
که فاتحانه بر ذبح خویش مینگرد
حالا... فتح الفتوحت مبارک
ای سلاخ دلم
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اگرکه لِه شوم به زیر دردها ،
امکان ندارد که حتی یک ذره کفر،
جاری شود برلب من
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غروب ِجمعه درگیرم، پریشان می شود این دل
شبیه بید ِمجنونی که قربان می شود این دل
سکوتِ درد می ریز
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مگر آن خالق کوشا دهد بهتر از آن
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در سکوت استخوانم، زخمهای تازه دارم
در پناهِ بغض خویشم، با خیالت گریهوار
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من ازین پنجره ها دور شدم
حاصل میوه انگور شدم
ساحل از دور نمايان بود و
من به پاروی تو مجبور شدم
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سوختم از سوز سرما آتشی بنمای رب
جام زهری برملا کن تا بی افتد از طلب
فاش گوی و برملا کن بنده ی شیری
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صبر تا کی ؟! دلم از طاقت بسیار برید . . .
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کنـد عـنـوان پـر سـوگی به دنـبال ..
" شِـنـو غـمـواژگــان سیـنـزده دال "
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میرفت و من بر ماندنش اصرار می کردم
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دراین شروعِ این پایان ،
نترس خدا حواسش هست
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ای اشتبـاهِ دلنشیـن ، ای جـانِ جـانِ جان من
ای تیشه یِ شیرینِ عشق ، بر پیکرِ ویران من
ای خون به
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تــو شدی لیـــلی مـــا
تـوی عاشقی تکیم
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تو گمشده ام بودی
من در باران
حوالی تهران
بالای خلوت کوهی
آواز می دهم تو را
تا پژواک صدایم
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بغضی در گلو دارم
به صبوری دماوند!!!
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وقتی لبت یک مزه ای همچون شکر دارد
دل میبرد یکباره و قصد ظفر دارد
بیشک پلنگ منزوی تنهای تنها شد
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به گزارش خبر گذاری قو های خاکستری
فصل جفتگیری رو به پایان است...
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هوای آمدنت ، شور شعر شب هایم
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آی خونه دارو بچه دار، زمبیلو بردار بیار
از (سبز پرهام)، محصولای پر انرژی دار
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زندگی
مثل شکوه پرواز
بر فراز آرامش آب
دلچسب و گواراست
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دردم را کس نمیداند
نگاهم گر چه بارانیست
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نه به اغیار دل نه بر غدار
بست باید که هست استثمار
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دولاندیر کاسه نی ساقی اِئدیم مِئیدن تَناول ده
کی عشق آسان گلیب اوّل ولیکن دوشدی مشکل ده
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من تو را از موج دریا خواستم
با تو بودن را فقط میخواستم..
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به تنهایی غرق دردم زخمِها دیده ام من
کنار مردمم، در غربتِ خود ماندهام من
زمین گرم شد، بهاران آ
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در حسرت تو بودم و چشم انتظار هم
از خویشتن بریدم و از روزگار هم
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خداوندا تو میدانی چه میخواهم ....
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اگر روزی شوم عاقل تورا دیوانه خواهم کرد
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❤️اگر کوه، اگر صخره، اگر سنگم❤️
❤️با دشمن و دوستان، همیشه یکرنگم❤️
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به تماشای بی انتها بر ساحلی نم زده نشستهام
تماشای بی پایان بر آرزوهای بی ساحل
حالا از میان همه د
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ناز لبت به این قَشَ... آواز دم چرا
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بعد از این سوز زمستون، بهاری هم هست
میشکنه بغض بارون، جویباری هم هست
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خانه های متروکه در من چه می خواهند!؟
شهری که تمام مردمانش مُرده است را درونم حمل می کنم..
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به تو می اندیشم!
نه یک روز
نه یک شب یلدای
زمستانی...
نه یک سال عمر رفته
بر خود آویخته ام
در کو
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سه گانی(من، تو ، او)
مو، تو ،وو
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قورباغه ماند و برکه و سکوتی
که میزد موج در آیینهی دنیا
که آوازی برآمد از دلِ آب:
"گل از پروانه
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شعر و غزل
با صدایِ نازِ تو
شنیدنیست
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پیش چشم همه مردم واسه عشق تو شدم خار
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بر قلب جگر سوخته ام آب بیاور
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و این شعر هم قواره ی توست...
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گویی نسیم دلگشا، زهری، به کامم می دمد
دلبر به چشمک، آتشین، تیری به قلبم می زند
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عجب شهری خداوند آفریده
فروزان کرده انوارش دو دیده
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عاشقم کردی یکی شد عقل و دل
بی تو صفرم با تو بی شک بیستم
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