جمعه ۱۶ آذر
اشعار دفتر شعرِ خورشید_خان اسد شاعر افسانه نجفی
|
|
کاش من روبه روی خودم
بودم
تا به ضرب نیزه ی خشم...
|
|
|
|
|
به روی شانه ی بی عاری
انداخته زندگی
نعشم را...
|
|
|
|
|
هزار نفر بوسه
به روی گونه هایت
در انتظار...
|
|
|
|
|
ببخش اگر نیستم
سرگرم خاکسپاری خویشم...
|
|
|
|
|
از وقتی
تو گفته ای
که:
" هیچ دوستم نداری!"
|
|
|
|
|
از وقتی
تو رفته ای
همه جای این خانه را
به دنبال خودم گشته ام
|
|
|
|
|
خور خوره های نفرت
می دَرند
تنم را
از هم
|
|
|
|
|
خواب ها!
مرا ببرید
به آن سوی ناکجا...
|
|
|
|
|
گویی مرده ام
همه آمده اند
به بدرقه ی تابوتم...
|
|
|
|
|
می ترسم تو را خدا بنامم!!!
|
|
|
|
|
بهشت را
بگذار
برای
وعده ی آخر...
|
|
|
|
|
آتر و آتشک؛جنگ میان ایزد و آتر ؛بر سر تصاحب کردن عشق...
|
|
|
|
|
در؛
شیهه کشان
می کشد
کنار...
|
|
|
|
|
تو
مرا
از این
جهنم!
برهان...
|
|
|
|
|
گفته بودم
که بی تو هم
دوام می آورم...
|
|
|
|
|
در شهری
که "عشق"
بازیچه ی
مردمان ِ بغال است!
|
|
|
|
|
هنوز
سرانگشتانم
تو را
به خاطر دارند...
|
|
|
|
|
بر بلندای دار
ققنوس می شود بیدار...
|
|
|
|
|
بوی تن تو
پَر می کشد
به آغوش سرد خواب هایم
|
|
|
|
|
می شویم
در حوض ِ اتفاق
اطلس ظریف باورم را
|
|
|
|
|
گلوبند اشک هایم
صدپاره شده!
|
|
|
|
|
دارد
روی دستانِ واژه
جان می سپارد
سکوت
|
|
|
|
|
کلاغ ها
شاخه ها را
بُریده اند...
|
|
|
|
|
_آخ!
حکم قاصدک
تیر است...
روزنه
همدست ِزنجیر است!
|
|
|
|
|
_در این قحطی شوم
مرثیه خوانان
خود
تشنه به خون
عیارانند!
|
|
|
|
|
دریا
چه میفهمد غم ِ ندیدن ِ باران را
|
|
|
|
|
تمام لحظه هایی که دلتنگ تو بودم
تو را
از برگ برگ خاطره می بوییدم
|
|
|
|
|
_کر و لالم!
با ایما و اشاره بگو
چند تا
دوست داری
مرا؟!
|
|
|
|
|
لای کاشی های دفترم
به جا می ماند
لمس ماهی های پُر احساس...
|
|
|
|
|
_قهر خورشید و آفتابگردان؟!
_عشق؛
تمام معادلات را
به سُخره می گیرد...
|
|
|
|
|
به هر کجا
که رفته ای؛
بر می گردی!
|
|
|
|
|
_چشم هایت را
به کجای قلبم؛
دوخته ای؟!
|
|
|
|
|
ما را
به جرم عاشقی
از بهشت
راندند !
|
|
|
|
|
عشق را
باطل می کند؛
شک...
|
|
|
|
|
کلید در باغ را
خودم دیدم؛
خدا...
|
|
|
|
|
باز
بر تن کرده
کهنه پیراهن عشق
|
|
|
|
|
_فراموشی گرفته ام انگار!
تمام اداها و خنده های تو را؛
تک تک
برده ام از یاد...
|
|
|
|
|
_آسمان اَبر شد
در خیالم
کوچه ی محرم؛ با دلم
همدرد شد!
|
|
|
|
|
من مس نویسم؛
تا تو
بخوانی ام!
|
|
|
|
|
عاقبت
از دلتنگی تو
خواهم مُرد...
|
|
|
|
|
_به پای درخت کُنار
اگر می ریختم؛
آن همه عشق را!!!
|
|
|
|
|
شهر دارد از درد
به خود می پیچد بدجور
|
|
|
|
|
_خنده خیلی قشنگه؛
وقتی رو لب های تو باشه...
|
|
|
|
|
سال هاست؛
سفره ها
پُر از بغض است!!!
|
|
|
|
|
ای کاش
جرعه ای از تو را
می دزدیدم!
|
|
|
|
|
تو که می آیی؛
بهار هم
سراسیمه
|
|
|
|
|
در این دور ِ پُر تکرار؛
_هما؛
تویی!
_افسانه؛
منم!
|
|
|
|
|
_گُل برنجک!
آخرین زمستان را
دوام بیاور؛
|
|
|
|
|
_تمام راه را
دویده بودم؛
گویی که سیب را...
|
|
|
|
|
برای قامت بی قواره ی زندگی...
|
|
|
|
|
_سال هاست
نشسته ام
بر سر دوراهی...
|
|
|
|
|
_هربار
که نبودنت را
می بینم...
|
|
|
|
|
_بگو چند بهار دیگر
باید از راه برسد؟!
|
|
|
|
|
دیشب در اوج مستی
با پای لرزان
خودم را به پشت بام رساندم ...
|
|
|
|
|
_برهنه ام!
_قحطی زده ای دل به دریا زده
|
|
|
|
|
تو مثل یک افسانه ی هزار شب
در خاطره ها جاوید گرفتار می مانی
هرچند پیکرت این روزها
پاره ی پریشا
|
|
|
|
|
برای خاطرم که غمگین است
دیدار او نوشداروی شیرین است
|
|
|
|
|
بکوب باران!
بکوب باران
بر خسته ی شانه های این شهر
|
|
|
|
|
خنده های تو
به تن مُرده ی بیابان
می دهد بی شک
تن پوشی از جنس بهار ...
|
|
|
|
|
_آی عشق!
تو روشن ترین آیه ای
پاک ترین سوره ی ناب!
|
|
|
|
|
جوانه زدن؛
همه آرزویم!
چه وقت زمستان توست؟!
|
|
|
|
|
_برای گرم شدن؛
به یک لیوان چای هم
قانع می شوند
اشک هایم...
|
|
|
|
|
فرقی ندارد؛
غبار باشد
یا مه!
|
|
|
|
|
_روی تمام زخم هایم
کتاب خواهم گذاشت...
|
|
|
|
|
گویی دستان ِ خدا؛
چشمان تو را
به پس زمینه ی خاطرم
میخ کرده!
|
|
|
|
|
تو اگر خودت را
هر شب
مثل خون!
در رگ هایم
تزریق کنی؛
|
|
|
|
|
چشم هایش
تمام زخم هایش را
در نگاهم
قلمه زد...
|
|
|
|
|
به بهشت رسیدم؛درها را می بندم...
|
|
|
|
|
_پدر؛
این ناجی مهر و عشق!
غارت زده ی حرامزاده ی اقتصاد شد...
|
|
|
|
|
_هیچ کس نمی داند؛
من تمام شعرهایم را
دزدیده ام!!!
واژه به واژه
از چشمان تو...
|
|
|
|
|
امشب
از دلتنگی
به خدا خواهم رسید
|
|
|
|
|
در آغوشم کشید؛
و من
بی اراده؛
چشم هایم را
بستم...
|
|
|
مجموع ۹۷ پست فعال در ۲ صفحه |