پنجشنبه ۱۱ ارديبهشت
اشعار دفتر شعرِ يك جرعه غزل شاعر طلعت خياط پيشه (طلاي كرماني)
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با یاد توام هر شب در خلوت ِ تنهایی
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باور نداری قدرت بال و پرم هستی
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با آن نگاه آشنای گاه گاهت
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از جان و دل ميخواهمت ، در عاشقي ديوانه باشم
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تو انعکاس ِ رویش ِ نوری میان ِ آب
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همه دل شده سرایت نفسم نفس هوایت
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به هر طرف که می روم دلم به جستجوی ت
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کسیکه بغض ِ غریبی نشُسته بر جانش
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با پنجره ای بسته چرا خانه بسازیم
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چو در نیایش رستن مرا صدا کردی
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ای آنکه بردی از دلم گلوازه ی صبر و قرار
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در بغض ِ گلو گیر ِ دلم زخم ِ شکار است
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می گذارم سر به روی شانه های سرزمینم
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برهم بزن سكوت ِ غم انگيز خانه را
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مثل مرغی در قفس جا مانده آوازم شکست
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تا تو رفتی همه جا سیل ِ خزان جاری شد
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من عاشق ِ دل دل زدن ِ خاک ِ کویرم
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تو با منی بوسعت ِتکرار ِ زندگی
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چه خطا سر زد از ما که نمی دهی جوابی
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به اشتیاق ِ عشق ِ تو به هر دری که سر زدم
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دلم در باورم گم می کند دستان تدبیرم
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فریاد از این غوغای سرخ و زرد ِ پاییزی
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وقتی سکوت فاصله بال و پرم شکست
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دلم گرفته برایت بگو کجایی تو ؟
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غم عالم مخور هر گز که دور ِ باطلی دارد
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دل مرده ایم و قصد ِ تماشا نمی کنیم
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گفتی ببرم دل ز علایق که بریدم
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دلم گرفته از غم هوای گریه دارم
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دست و بالم بسته است در انتها جامانده ام
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قد می کشد عطر تنت از خانه ام امشب بیا
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از طایفه ی شهر ِ کریمان ِ کویرم
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امشب به هوای لب ِ تو جام گرفتم
از هلهله ی عشق ِ تو الهام گرفتم
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صدایم کن که در این بی صدایی ها زمین گیرم
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آتش بزن در من بسوزان باورم را
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چه بی ثمر نشسته ام میان ِ خوف ِ خواب ها
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وقتی نگاهت با نگاهم دلبری کرد
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نمی دانی که در پشت ِ نگاه ِ سرد و خاموشم
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کسیکه بغض ِ غریبی نشسته بر جانش
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مگر به جشن ِ شبی عاشقانه مهمانی
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افتاده ام از اوج ِ دنیای جوانی ها
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کشیده چادر ِ شب را فلک بر بام ِ تنهایی
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امشب تو می آیی و دل ، غرق ِ تماشا می شود
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سایه ای افتاده بر رخسار ِ گلرنگ ِ شباب
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خدا گند که بغض ِ غم بیک بهانه بشکند
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بر در ِ عشق ِ تو با دست ِ غزل در بزنم یا نزنم
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دلم گرفته خدایا ، گره گشایی کن
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من عاشق و مشتاق ِ هیاهوی شبابم
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چاوش ِ زمانه بی قرار آمده است
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بسکه گل کرده هوا در گذر ِ عطر ِ تنت
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از بس دل ِ دیوانه ی من غرق ِ خروش است
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بهاران آمدو گلشن سراپا شور و غوغا شد
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چشم انتظار دیدن تو دیده بر درم
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امشب میان ِ واژه ها شور ِ غزلخوانی ست
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ما همان مست و خرابیم دوایی بفرست
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زمانه دست ِ مرا بسته است ، چو زندانی
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امشب زده ام بر سر ، دستان ِ دعا را باز
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اگر در تماشای چشمان ِمستت غریبم
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بيا اي دست ِ استغنا مرا از من جدايم كن
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خزان رسيد و جواني چه با شتاب گذشت
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مي چكد قند و عسل از لب ِ شيرين شكرت
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اي آنكه بردي از دلم گلواژه ي صبر و قرار
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تو را گم كرده ام اينجا نمي يابم مدارت را
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تو مي داني كه دلتنگت ندارد شوق آواز
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من تشنه ترين قاصد تكثير ِ بهارم
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چه بامن مي كند هر شب مرور ِ حس ِتنهايي
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تو را گم كرده ام امشب ندارم شوق ِ فردا را
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نگاه چشم ِ زيبايت لبالب از فريبايي ست
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رفتي دل ِ من خسته ز غمها شده بر گَرد
تقديم به همه دوستاني كه
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دیگر نمی خواهم تو را هرگز ببینم
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ديگر نمي خواهد دلم تنها نشينم
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همه آرزوی من شد بدرت کنم گدایی
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تشنه ام تشنه بگو دجله ی مهتاب کجاست؟
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در دل ِ عاشقان ِ تو شوق ِ تو می زند شرر
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بیا که در فراق ِ تو ، چو شعله غرق ِ آتشم نفس گرف
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گم شدم در بی نهایت یا علی دستم بگیر دم به دم دارم هوای
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سحر شد در زمان آهنگ هوهوی جنون جاریست
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چقدر بی تو نشستن میان ِ تنهایی
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