جمعه ۱۶ آذر
اشعار دفتر شعرِ چهل سالگی شاعر محسن ابراهیمی اصل (غریب)
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دیدن ندارد آسمان وقتی نمی بینم
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ما زنده ایم با غم دوران و درد بیش
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با ائتلاف دغدغه هایم تمام شب
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موی سپید و روی نزار مرا نبین
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هرگز سکوتِ من نشکست و عیان نشد
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من در توهم گاه یک دنیای دیگر می کشم
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صبح دل انگیزی پس از شب زنده داری هست
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تو باش ونام مرا باز هم ببر به زبان
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من و تو یک هوایِ رویایی
از همین زندگی طلب داریم
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ظاهرا با صلابت و شاد و از درون صادقانه گندیدیم
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رویِ سپیدِ ماه می گریم و می نگارمت
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پشیمان می شوی وقتی که کار از کار بگذشته
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عاشق نبوده ای و حماقت ندیده ای
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دیوانه هایِ عاقل و بیدار شهر را
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دیگر کسی این روزها رویا نمی بافد
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فریب خنده ی من را چگونه می خوردید
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می خواستم ببینمت اما جهان تویی
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می شود از امتحانم دست برداری رفیق؟
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می سرایم این غزل از زیر خط فقر تا....
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رفتی تو یا من مانده ام در اوج حسرت ها
با بال هایت پر بکش تا بی نهایت ها
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شال بردار از سرت بانو گنه در کار نیست
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بنویسید که یک روز خوش این نسل ندید
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آمدم با دوچشم خواب آلود
می روم شرشو بکن دیگر
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باده نخوردم چونین،خانه خرابم کنی
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بگذار زمین همین جهنم باشد
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آخرین مرتبه کی خنده به لب داشته ای؟
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می آید آن ایام هم شاید کمی دیگر
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همین که عشق مرا در جوانیم کشتید
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باران تمام طول شب را تا اذان می زد
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گیسوانت را پریشان کرده و اعجاز کن
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روز می آید دوباره بویِ خوبِ زندگی
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درد خودمان درد و دوای دگران هیچ
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چون که آن بالا نشستی ریز می بینی
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هر که می میرد هزاران بار تحسین می شود
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ای کاش رفاقت سند معتبری داشت
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نیمه شب دیوانه بازی ها کجا و ما کجا
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تا کنون اینگونه چشمان مرا تر دیده ای؟
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ترسم که گذارم زسرِ کویِ تو افتد
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دنیا اگر چنگی نمی زد بر دلم دیروز
زیباست امروز از نگاه گرم زیبایت
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ما همان بچه های بی تابیم
در رحم های مضطرب از ترس
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ازچه بگشایم دری این سو،که آن سو نیستی
دیده بگشایم چرا وقتی که بانو نیستی
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بی لطف حضور تو کماکان نمی شود
درد تو مرا سوخت و درمان نمی شود
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از دام تو چون صید رها کی شود آخر
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می زند بانگِ اذانِ صبح و بیدارم هنوز
آسمان روشن شد و درگیرِ افکارم هنوز
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چشم کوچک کرده دائم نور بالا می زنی
چنگ بر قلب ضعیف و نفله ی ما می زنی
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بین آن صورت مصمم تا
چهره ی آخرش تفاوت بود
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می شد مگر از ساحل مرجانیت گذشت
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