سه شنبه ۲۳ بهمن
اشعار دفتر شعرِ شمعدانی شاعر حمیدرضا گلشن
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شدی خام زبان بازی یک بازیگر دیگر؟
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پدرم پیر نشو... روشنی خانه بمان
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کوچکید و لایق برچسب دشمن نیستید
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این منم که این چنین دیوانه و رسوا شدم؟
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وطن! شرمنده ام دیگر توانی نیست... بدرود
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عشق در باور من صِرف رسیدن به تو نیست
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عناوین غلام و کدخدا را حذف می کردم
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خنده ی یار قشنگ است... بخندانیدش
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با تمام زخم هایم روی پا هستم هنوز
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آری ای یار درست است... گرفتار شدم
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باز هم تنها شدی و یاد ما افتاده ای؟
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من ساده به فکر خام اهلی کردنت بودم
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بخند و این جهنم را گلستان کن... بگو چشم
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در این قمار عاشقی خانه خراب می شوم
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اگر عاشق شدن درد است من درمان نمی خواهم
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من پر از ذوقم برای ساختن همراه تو
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آمدی مهرت به دل افتاد و جانانم شدی
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تماما دلبری و عشوه و نازی چرا تو؟
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دیگر برایت شعرهایم را نمی خوانم
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بسم چشمانت که من را تا ابد بیتاب کرد
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به دریا رفتنم با تو مسیحا در مسیحا بود
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تصور کن که در جغرافیا شیراز می رقصید
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نماندن از سر عشقت که باشد می شود ایثار
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در این جا گندم از گندم نمی روید، چه بد رسمی ست
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دلیل با تو بودن، دیگری را بردن از یاد است
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چه خبر یار؟ شنیدم که گرفتار شدی
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خسته ام... جوری که حتی میل گفتن هم ندارم
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چه آسان شیوه ی دل کندن از ما را بلد بودی
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گرانبهای من! گران بمان و رایگان نشو
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دیدن زیبایی ات صبر مرا مغلوب کرد
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بغلت چیست؟ هم آمیزی پاییز و بهار
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آه مردم عشق من معشوقه ی اغیار شد
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می خواهمت، اما چه باید کرد؟ راهی نیست
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تو زیبایی ولی زیبایی ات انگار کافی نیست
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کنار هرکسی باشی به غیر از من حرام است
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با نخ کوشش لباس آرزوها را بباف
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بیا باران... تداعی کن برایم بودنش را باز
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اگر سهم من از عشق تو ناچیز است می خواهم
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اجازه می شود دلتنگ چشمانت شوم بانو؟
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آمدی وقتی که دیگر بی نهایت دیر شد
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غیرت اگر داری به فکر رشد زن ها باش
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حلالت می کنم با این که بد کردی... خداحافظ
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بیا با هم به روز اولین دیدار برگردیم
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همان بودی که عمری در خیالم می پرستیدم
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سخت گیجم کرده حسّ توامان چشم تو
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مجنون شدم تا لیلی افسانه ام باشی
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هیچ اتفاقی عزیزم، در این جهان ناگهان نیست
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چشم ها معدن باروت و لبش مثل تفنگ
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جگرگوشه! تو را جز من کدامین مرد می فهمد؟
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که می دانم بیان دیگر عشق است نفرت ها
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لبت شیراز و چشمت اصفهان و خنده ات گیلان
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حریم آستان چشم پاکش تولیت دارد
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فرهاد بودن یا نبودن... مساله این است
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مقصرتر منم یا تو؟ همیشه داوری سخت است
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شیطنت کن، دلبری کن، شهر را بر هم بریز
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دست در دست دو دیوانه به دریا بزنیم
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حالا منم با کوله باری از نبودن ها
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عشق شاید دختری از خطه ی شیراز باشد
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نمی خواهم وداع آخرم دشوار باشد
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چشم خود را بسته ام دیگر برایم ناز نیست
چشم های تیله ای، زلف رهای هیچ کس
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عزیزم با گلاب و شهر کاشان نسبتی داری؟
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شبیه من کسی درگیر چشمانت نخواهد شد
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چهره ات شرقی و معصوم و نجیبانه ولی...
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دردهای دل من بیشتر از بسیار است
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آدمی هرجا که باشد آخرش تنهاست، نیست؟
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عاشقت هستم... وَ می دانم نباید باشم آه
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من به جای خالی ات حتی وفادارم هنوز
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آدم دلداده از غربت به غربت می رسد
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بال پرواز تو هستم، بال پرواز منی
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گلِ بی خارِ کجا سر به هوایت کرده؟
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فرشته خوی شهلا چشم شهرآشوب شیرین
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ولی در اخم خود یک پادگان سرباز داری
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رفتی از من... نوش جانت شوکران دیگران
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با حجابت شهر را غرق نجابت می کنی
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آمدی و زندگی از زندگی سرشار شد
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بمان که لحظه های من با تو قشنگ می شود
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دیگر آن دیوانه ی اهل نرفتن نیستم
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