جمعه ۲۳ شهريور
اشعار دفتر شعرِ گل آفتاب شاعر محمد ایثاری نیا (جوینی)
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خدایا هیچ کس را
"تن" بیمار و
"کیسه"بیمار مگردان....
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به حالِ "دل "
بارید ابرِ آسمان
چتری بیاور....
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گام به گام
سال را به آخر رساندن
قرار نیمه تمام
کلاس نرفتن ......
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هیچ گاه
دیر نمی شود رفتن.....
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واژه به واژه
نوشتیم
سرنوشتِ دفتر زمستان....
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پنهان رخ خورشید
پس آن همه
سیاهی ابرها
به سان
گیسوی مشکین میترا
نقاب از چهره
برگیرد
به امید ر
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دستان ناز تو
می زند
نقش خاطره
بر تار و پود
عاشقانه ها....
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امید ،
شوقِ بی تابِ آفتاب گردانی ست
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در هجوم هوای نا پایدار
با طغیان رودخانه ها
حوصله ی سدها هم
سَر ریز می شود گاهی ......
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بهار
تولدی ست دوباره
آغازِ رویشِ جوانه ها
فصلِ شکوفائیِ عنچه ها....
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بخاری هیزمی
در شب های سردِ زمستان
و شب نشینی خانواده
دور کرسی......
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خدائی که بود نقاش زیبائی ها
روی بوم زندگی
تصویری کشید بی نظیر
برای تمام فصل ها...
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مسلمانا
گوئیا امسال
خود ، قربانِ حاجی شدی
نفس خویش را بریدی و
صافی شدی.....
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کودکی که
"دنیا شبیه نقاشی هایش نبود"
انسانیت خوابیده است آنجا
یا مست است سیاست را؟...
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سال ها
هر روز ورق زدیم
دفتر زندگی را برگ برگ....
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بزرگ شده ام کودکی را
از پی کسب لقمه ای نان
پیش از بلوغ جسمی که کنده است جان...
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بسان تو راه می رفتم
بسان تو سلام....
برای اینکه بگم بزرگ شدم
کفش هاتو پام.....
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امروز
دل تنگِ کسی هستم
که بی دریغ بود
تمام دوست داشتن....
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نوروزآمد
آغازِ روزی نو
برای مردمانی با عاطفه- غریب –
در زمانه ای – عجیب -
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گام به گام
تا اینکه کُمِیتم نه لنگد
عرض زندگی ام طی شد به پام.......
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زمین می بوسد
دستان بهاری که
فرجامِ زمستان را نوید می دهد.....
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روز های آخر سال
قرار نیمه تمام همکلاسی ها
برای نرفتن به مدرسه.....
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هوای دل انگیز ابریِ بهار
به انتظار گونه های تو
جاری می شود
با
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جا خوش کرده،
چیزی درونم...
که می خواهد
بشکافد سینه ام ر
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دفترِ سرنوشت
که نوشته اند درآن
سرشت ما
گشوده است روزگار.....
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کاخِ آز
بنا شود بر خرابه های صداقت
در زمینی که به جا مانده از مناعتِ طبعِ من و تو هنوز....
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حَک خواهم کرد نامت را
بر کتیبه ای
از جنسِ عاطفه
تاگواه
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باز می کنم
پنجره ی خانه ی
قدیمی را.....
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سال هاست
حیران وادی عشقم ....
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هزاران نکته پنهانست
در زلف سیاه تو...
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زمستان آغازیست
برای دانه های خفته در خاک
تا رویشِ آرامِ جوانه هارا
پیوندی جاودانه بخشند
با فصل
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آخر هم ازعشق به دلدار ,نگفتی رفتی
ازغصه ی مجنون گرفتار ,نگفتی رفتی
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زندگی شاید
تکرار گذر از
فصل هاست...!
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سهم من از زندگی چیست؟
نوازش دستا نم
بانسیم تو
قبل از ش
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زمان می گذرد با شتاب
وقت تنگ است...
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دفترِ سرنوشت
که نوشته اند درآن
سرشت ما
گشوده است روزگار.....
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زمستان تفسیرغم چشمان تو ست.....
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پائیزِ قشنگِ رنگارنگ
دقایقی چند بار سفر
خواهد بست....
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زمین...!!
اين فرش رنگارنگ
آخرین برگ های پائیز را
می گست
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پائیز هم
اگر مهر زیبایش نبود...
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هنوز باورم نیست که
بهارم خزان گشت و.....
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لقمه ای نان روغنی
لب تنور داغ سنتی
کمی کره محلی و ......
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گلِ سیمایِ ِ دختِ مهر
پژمرد به دستِ شقاوتِ حماقتی که بی انتهاست...
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دیروز
خورشید را در نینوا
به مسلخ بردند و
خاندانش به اسیری شام....
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چلیپا
مقدس از روح خدا و
دار محبوب
ازسِرِّ اناالحق
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آفتاب به آرامی
غروب می کند و
- دشت -
مسافران روز را بدر
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و چه زیباست
عشق
به سادگی و بی رنگی....
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بانوی من
هر روز و هرشب
کوچه آشتی کنان محل را
دوره می کنم.....
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طلوع خورشید
و غروب آفتاب،
شوخی تلخ و تکراریِ
آسمان است با من ......
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برای جبران کم آبی رود ها
بسیج می شوند
تمام سد های عالم
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بی تو زلفِ پریشان و
سلسله ی موی دوست
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بهار با تو زیباست
وقتی فرجام عشق را
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پروانه شدم ، دور تو گشتم
سوختم و ساختم ای جان من....
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ازسادگی من
همین بس
که باورم شد بازگشت تو
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تو که باشی
تمام غروب ها را
دلگرم و عاشقم
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وقتی آسمان
برای فردایِ جاده ای
که تو رهگذرِ آن هستی
قرار بارش برف گذاشته
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غروب
تفسیرِ غم انگیزِ چشمانی ست ...
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می گویند که تو
در دل جای داری...
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غروب هر آفتاب
می خواند قصه رفتن تو را
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وقتی تو باشی و
یک استکان چای داغ.....
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عشق یک مرد
در خانه ای کوهستانی
که بود معماریش سنتِ یوش....
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از دیدگان تو
جاری شد بهار...
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حال که باران
تمام یادگاری هایت را......
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وصال تو
برای من
از جنس نیازی است
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هوای دلپذیر پائیز
به آرامی می خواند تورا
ونم نم قطره ه
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ازامشب
تمام پائیز بارانیست
جنگل را مه گرفته و
دریاتوف
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با وجود برف و سرما
اما هنوز
پائیز
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