پنجشنبه ۷ فروردين
اشعار دفتر شعرِ یاس شاعر اله یار خادمیان(صادق)
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عقاب اوج را در بی فضا جای پریدن نیست
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ای زشهید وطن در وطن خویش غریب
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هیزم شدگی حق درخت ثمری نیست
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نقشی زده ام ناب الهی که بماند
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به تماشای تو رفتیم به دیدن نرسید
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گوش زمان میشنود در همه جا صدای تو
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برود یا نرود بی سر و سامان در باد
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تمام خستگی ام را به سایه بخشیدم
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آنروز که آغاز تو پایان مرا بست
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مرد می باید که اینسان بگذرد
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از سکوت مردم بیدار ضربت خورده ایم
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عاشقی را نمیتوان فهمید تا نباشی اسیر لبخندش
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سلام حضرت باران درود ساقی آب
کویرزنده شود با خروش چشمه ی ناب
گروه تشنه به امی
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وای بر تو با پریشانان پریشان نیستی
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برود یا نرود بی سرو سامان در باد
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دلم نشسته در آیینه های افسرده
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پرواز فرو ریخته از سیطره ی بال
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شیشه هر چه شکند تیز تر است
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فال مرا دید گریه کرد به حالم
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روزی که جهان نطفه زد آغاز علی شد
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تا جوان است و جنون عشق جوان میماند
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بر سر طوفان نشستم تا شکستم باد را
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نظم ما و دفتر نازت نمی خواند بهم
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شد فرش چمن، سفره ی گل شد همه جا باز
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به فروغی که تو را کرد چراغ سر دست
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می و عشق و نو جوانی که کند به هم تبانی
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عاشقی را نمیتوان فهمید تا نباشی اسیر لبخندش
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آب از گذر زمان نمی خواست حسین
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می تواند گل یک دانه گلستان بشود
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رمضان می گذرد باز همانم که همانم
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ای امام انقلاب دل سلام حضرت آیین بی مشکل سلام
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اگر ستاره قطبی بر این سرا برسد
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میسرایم به برگ زردِ زمین ، با تو امشب ترانه ی باران
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زندگی با دختر آوار کردن مشکل است
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چشمان سایه منتظر یک ستاره بود
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شریک شادمانی هایمان از غم سرایان شد
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تا تو با مایی در باغ تبسم بسته نیست
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همدم باد صبا هستی و همزاد گلی
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شدم اسفند و آتش در شب یلدای تو یلدا
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یک حادثه من را سرِ سطرِ خطر انداخت
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گاهی تمام پنجره ها باز می شوند
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دلم نقوش تو را میستود هر چه که بود
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زادگاهم روی دوش دشت های تشنه بود
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شهریارا شهر زاد قصه خوابت کرده است
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حیرت مکن فرشته که من ادمیستم
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توفان آهت آسمان را می برد با خود
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اندیشه گرفتار همین چون و چرا هاست
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زنگ بزن، زنگ بزن، بی درنگ
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گفتند و نگفتند وصالت به چه قیمت
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کرده ام بر سیب شیرینت هوس
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یار در آغوش مرا می فشرد گر غزل نیمرسی داشتم
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شدن های تو امر ناشدن نیست
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شعله به عرش می زند زمزمه ی عزای تو
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هستی همه را حکایت نی دیدم
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به سمت هجو هجا می بری خیالم
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به دل جویی دل ما را گرفتی
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محمد سر علی گیسوی عشق است
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بیش از این با باد و خاک و اب در گیرم نکن
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کو نغمه ی خوش کو تب روییدن و رَستن
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کوثر دریا ی الله الصمد را یافتم
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شیشه ایم از سنگ لا کردار ضربت خورده ایم
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یک قلم رنگ شبت طاووس را حیران کند
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تا هست فضا باز بپر مرغ مهاجر
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رمضان می گذرد باز همانم که همانم
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