يکشنبه ۱ خرداد
اشعار دفتر شعرِ نسیم گلشن شاعر حسن مصطفایی دهنوی
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بيدار دلان را غـم بر عيش و طرب نيست
غم خوردن آنها به قيامت كه عجب نيست
پوينــد
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حسن كار خدا گفتي و ابر و باد و بارانــش
كز اول تا الي آخر همه باشند به فرمانــش
به
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بيدار دلان را اثـر از لهـو و لعـب نيسـت
آن بـي اثـر از عالـم اسرار و ادب نيست
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شب قــدر است و دارم ايــن نـظــاره
كـه فيــض حق رســد بــر من دوبــاره
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اول خــدا كه علـم طبابـت قــرار داد
لقمـان بگفت و علم خـدا را انتشــار داد
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پايمال گمرهـان شد،فردي كه خودسر آمـد
از خودسري خود بود،همــراه گمــره آمـد
هـر فـرد
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ياران تفكر يـار ، هِـي دَمبـدَم بـر آمـد
الهام فكـر آن يـار باز هم بر اين سـر
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مـــن مـا لــــك مُـــلـك خــــودم
كــي مـا لــــك مُـــلـك تـــ
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اي برادر در جوانـي علم و دانش را بيـار
علم و دانش درجواني نيك و تَر آيد به كار
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هـدايــت گريــهاي حــق را نگـــر
هدايـــت كنـــد آدم از يـــكديـــگر
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راه خدا پرسـتــي ،فقر است و تنگ دستـــي
در راه خود نمايي، نـتوان خــدا پرستـــي
اي
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بـُوَد ديــن حـق ،بــــهتر از انگبـيـــن
چـه شيـرين و باشـد بــر اين مـسلـمـيـ
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پــدر تـربـيـــت گر نـمايـــد پـســـر
هـدايــت گــري مي بُـوَد ، آن پـ
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پــســر گــر لجـاجـت كنـــد بـا پـــدر
بـه هــر جــا رَوَد مي شــود دربـ
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جانـا بيــا به نظم و نظام جهـان بكوش
زآن نظم و زآن نظام ، لباس هنـر بـپوش
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من از روز ازل ياران ، به راه اين جهان بودم
هرآن راهي كه پيمودم نديدم ازجهان سودم
تما
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ياران تـراز عدل خدايي بـرابر است
هركس عدالتش نَـبُـوَد ، مثل كافر است
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من كه از نيكو صفاتي نزد مردم رو سپيدم
عيب خود را گر بديدم عيب مردم را نديدم
عيب جو
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هــر نـفــري را كـه نــكــو سـاخـتـــش
تــا كــه دگــر بــاره نـــپرداخـتـــ
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بـه دنيـــا كـار اگــر آلــوده مـي بـود
بـه عـقـبـــي كـار گـردد رو بـه بـهـب
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گر عمر من و چرخ كهن سرنگون شــود
كي بينم آن خداي كه بر من عيـان شــود
گر من عمل
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مَـشـــو گـويـنـــده حـرف دروغـــي
اگــر دانـــا دل و روشـــن فـروغـــي
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در دايـره دنيــا هـر قدر كـه گرديـــدم
علـم وادب و دانـش تا ديـدم و بـرچيـــدم
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رفـيـقـــان بـشـنـويــد و حـق مـگويـيـــد
ره حـق را در اين دنيــا مـجـويـيـــ
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زِ مهـر خـود ، به عهــد حـق وفــا كُــن
بـه عهــد حـق ،خـودت را آشنــا كــن
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رو به فلك مـي رويـم ،مـا به تولـي دوست
رفتــن مـا همــره صحبـت اعلاي اوست
كوشش م
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هـر آدمـي كه ظلم نـمي بوده بـر سـرش
هـر كـه بـبيند آن ، بـشود ظلـم باورش
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نصيحتي كنم ات ، اي بـرادرا بِـپسنـد
كه مرگ در پس اين گردنت نهاده كمند
برا
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هرعاشق بي دانش خواهد زِخود كاري كند
اما حساب اينجا بودكزدانش آن كاري كند
دانش به مغ
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تا كه نجواي علل ازكج رَوي دركارتوست
بيهوده با ديگران آن تهمت و گفتار توست
هر علل از
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بـي خـبران را بگــو،مـن خبـر آورده ام
هـر بـد و هـر نيـك را در نظـر آورده ام
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بارهـا دل طلب جام جـم از مـا بُــوَدش
آنچه درخـود بُــوَدش ، پيرو معني بُــوَدش
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آمد نسيم آن گُل مشكيـن عذار دوست
آن باد خوش نسيم ،زِ دشت و ديار دوست
تا مـي
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خــداونــدا تـو بـر مُـلـكـــت اميـــري
تــو هــر افتــاده اي را دسـتـگيـ
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اگـر بــر خلــق حــق ،آتــش فــروزي
تــو هـم بايـد در آن آتـــش بــســـوزي
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غمـــي دايـم دلــم را مي فشـــارد
غــم از دوران بــراي مـن بيــ
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هـر كـس بـه دانـــش پـيـــرو اســت
در راه دانـــش رهــرو اســ
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يا للعجب چه چــاره كنــم من به روزگـار
بـر من ستـم نـموده به يك عمــر بيشـمـار
بـر
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تا خلـق هـر زمانـه نـترسـنــد از خــدا
كــي مي كنند به عهد خداوند خود وفــا
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اول سلام من به شـما جمع مؤمن است
رسم سلام فايـده ملك و ميهـن است
ياران
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ما تجربـه كرديـم دو صـد تجربه هـا را
ديـديـم به هـر تجربه شـان عـلت و هـا را
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اي رفيق عمر گرانمايه كه مصرف بـشـود
بايـد آن مصرف گفتـار خـدايت بـشــود
عمراگرم
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طرفداري مكن جانا از آن افـراد ظلـم آور
كه ظلم هرتبهكاري نويسندش به صد دفتر
هر آن
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تــا كـي به رأي و بينــش مــردم سَـلنتــري
دانـش بـجوي كه گوي زِ ميدان به در بري
اس
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اين جــهل روزگار بـه من يــاوري نــكرد
جــهلش بـه من فزود جفاهـا و جور و درد
من هم
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هــر كــه نـه هـمـــراه نماينـــده اســت
در ره تـوحيـــد كـه وامانــــده اس
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خـــداونـدي كــه دانـــش آفريــده اسـت
بـه مثل بـرق در دنيـــا كشيـــده اسـت
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عـدالـــت را خــــداونـدا شـنيـــــدم
بــه راه مـعـرفتـهــــايـــش دويــ
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هـر كار نيك و مرغوب دائم اشــاره كردم
هرعيب ونقصي آن داشت دائم شماره كردم
با كار ز
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بــه كوشــش بـيــانديـــش از كــردگار
كــه رحمـــت فـرستـــد برايـــت هـــزار
ا
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زِبردستي اگر هستـي مــرو در راه نادانــي
هرآن نادان كه مي بيني به در آور زِ حيراني
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خــوشــا آنـان كه بـر حق رو نـيارنـــد
زِ حـق گويــي مــداوم بر كنارنــ
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ما از اثـر كويَـــت اگر طُرفه بـِبستيـــم
از آن اثـر كوي تو غافـل كه نِـي استي
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خــدايــي كه پـيغمبـــري زنــده كـــرد
بــر آن جبرئيلــي كـه پــَرنده كــ
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يارب ترحّمـي كن من با تودوست هستــم
هر راه خود پسندي بر روي خـود بِـبستــم
راه دي
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چرخ كهن كــي بـه من امــداد مي كنــد
اين دل كه سـوخت كي دگر آباد مي كند
يارب
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يارب چـرا فرو شده ام من به كار خويــش
فيضــم بده به كار نكو تا بَرم به پيــش
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يارب ترحّمــي كُن من از تو بـر نــگردم
وين جسم وجان خود را صرف ره توكردم
يارب تو
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خـــدا حكم تـو بـر من هســت جــاري
طلــب كردم شــب و روز از تـو يــاري
خـــدا
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علـم خـدا، به باغ جنــان مي بــرد مـــرا
در آن بهشـت كون ومكان مي بـرد مـــرا
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ما در مدار حقيــم وز حق نشان نيابيــم
در هر مـدار حقش بهـتر زِ هـر گُلابيــم
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شخصـي كه بر حكومت حق آشنا شــود
وجدان دين آن همه پُــر محتوي شــود
رســم
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فرياد از آن شــرارت اين چـرخ كينه جــو
خونش نمي توان كه بريزم به صـد ســبو
كـو
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هاتـف اسـرار غيـب هـر چه خبـر آورد
عيــن حقيقـت بُوَد تـا بشــود باورد
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عمر بشر كه صرف مِـي و جام مـِي شـود
يا همره صداي دف و چنگ و نِـي شـود
سيـري
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تا به تولّــي دوست بر پَـرم از آشيــان
كس ديگر اين روح من ننگردش درجها ن
م
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اي دل به هوش باش كه دينت به باد رفت
دين پاكي است ، پاكي دينت زِ ياد رفت
دين در
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در روز رستخيـز ، تجمّل نمي خرنــد
آنجـا غرور و عُجب و تكبّر نمي خرنــد
د
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اي حسن ،گر سخني بهتر ازاين داري بيـار
نيكتــر باشــد بَرِ خلق و بر پروردگـار
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حسين(ع) آن آفتـاب بـرج ايـمان
شهيـد راه حق شـد از لعينـ
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ابـر مـرد تاريخ و دنيـا علـي(ع) بـود
كه در راه دين خدايـش ولـي بـو
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گـر نَبُـوَد مهـر علـي(ع) بـر دلت
آتـش سوزنـده بُـوَد
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آدم آن نيست ،كه كارش همه باشد زِ كلك
بـي گناه آدميان را ، بزنـد زجـر كتك
دغل
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دانش نمي توان جُست ، از فرد كينه جويي
هر كينه جـو ندارد ، نامـي و آبرويـي
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درمجلس رندان ، سخن ازجور وجفا نيست
آنجا بجز از صحبت پـُر مهر و وفا نيست
آنـها كه
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ازمن زبان به ذكر و صفاتت،به گفتگواست
از آب ديده ام، سر ودست مـرا وضو است
يارب عناي
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هر كس خطا به حق بكند، روز محشرش
خجلت كشد ، طلب بكند لطف داورش
حسرت خورَد ،كه
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آثار خـدا ديدنـد ، آنان كه خـدا جويند
آثار نـمي بيننـد ، آنان كه خطا پوي
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گـر اين نـخل قـدم پـُر ثـمر بـود
به كـار چـرخ دنيـا پـُر ضـرر
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ما با خـبرانيـم كه با عهـد و قراريـم
از جنگ و جهالـت و تـقلّب به كناريـم
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