يکشنبه ۲۵ آبان
اشعار دفتر شعرِ محبت شاعر مطهره احمدی (محبت)
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بر پیشانیِ افق
آنجا که میزبانِ ماه می شوی
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ای آفتابِ جان
این جسمِ خواب رفته ی تهی
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در من زنی آتش زده آزادی اش را
خاموش کرده آرزوی عادی اش را
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در امتداد چشمهایم
طلوع می کنی
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چند پاییز و بهارِ دیگر
باید مهمان چشمانم شوند
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بنوش از عصاره ی جاری در تنم
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در دشتهای آرمیده ، در خیالِ تو
با چشمهای نیمه ابری ، قصّه می بافم
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گاهی که می شکنم، لبریزم از گله ها
از قولهای نداده، از درد فاصله ها
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یک روزنه ،که به لبخند سر زده
یک باغِ گل، که به دورش چَپَر زده
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تنهای بی همتای من
تویی که چشم از دلم برنمی داری
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در حوالیِ دوست داشتنت
پر از هوای توام
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چه با شکوه
در محاصره ی ابرهای بی باران
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در آغوش بازوانم
به تو فکر می کنم
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چشمان بی نظیرت
گل میکنند
در بهار جانم
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بدون حضورت
هیچ طعمی ندارد
کنار آتش گر گرفته ساعتها نشستن
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از خاموش ترین آسمان
تمنای نور کرده ام
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هی حرف می زنم انگار با خودم
یا تلخ می شوم و قهر می کنم
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پذیرا شو
هبوطم را از ماورای قلبت
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در انزوای خیالت
به خواب شیرین
دچار می شوم
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تلخ می گذرد
از تقویمِ این روزهای بهار
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ناگفته هایم جاری اند
تا وقت پناه آوردن به تو
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همچون حباب
در خاطره ی روشنِ ریسه ها
چراغانی کرده ای
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دستم به دامنِ آسمان تو
به ضریح سرخ شفق
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چیزی به صبح نمانده
و نگاه های بی خواب من
پر از انعکاس لبخندِ تواند
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ازین خیالبافی های تلنبار شده
به تو می نویسم
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وقتی چشمای پر از احساست
به تماشای خدا می شینه
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شیشه ی خیسِ پنجره، بغضِ کدوم مسافره
اونطرفِ قصه دلش ، مونده کنار خاطره
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درین دقیقه های بی روح
دچار م به استیصالی عمیق
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رویای مه آلودم
سالهاست آشیانه ی وجودتوست
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زندگی
مثل شکوه پرواز
بر فراز آرامش آب
دلچسب و گواراست
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ببار این لحظه های درد را باران
ببَر از خانه فصلِ سرد را باران
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جهانم، همین گوشه ی دنجِ با تو
گمونم شدم، تشنه ی خنده هاتو
پُر از واژه میشم، بهانم تو باشی
چقد خوب
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تا کی سرِ دیر آمدنت صبر بنوشم
هی چشم به در، با گله و درد بجوشم
تا کی نگرانِ تو لب پنجره باشم
هِ
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ایوانِ خانه ام به هوای رسیدنت
نذرِ سکوت کرده، برای شنیدنت
در من صدای دلی تازیانه شد
جان می کَنَ
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تو در خیالِ روشنِ چشمان چون مَنی
من در هوای سبزِ رسیدن، به مأمنی
در روزگارِ تشنه ی گل کردنِ
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رویاهایم را
هر چند کوچک
هر چند محال
هر چند دور
به آب سپردم
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دیدنِ لبخند تو و بوسه به روی ماه تو
حسرتِ هر روزِ منه،دل شده جون پناهِ تو
گم شده بودم تو خودم، ت
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شانه ام باز، تو را می خواهد
حلقه ی محکمِ آغوش تو را
بدهد شالِ چروکیده ی من
بوی آرامش تن پوش تو
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جای خالی ات
حرف میزند بامن
تنها وقتی که دلم
پرچانگی می خواهد.
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