جمعه ۱۰ فروردين
اشعار دفتر شعرِ حدیث حکمت شاعر عباس زارع میرک آبادی
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سركش مي میخانه، کم خور غم بیگانه
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قومي از اشرار آمد در جهان
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این جهان را پر ز خالی کاشتند
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ي ُمدّعي به عشق وجودش مرا نگر
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خانه ي كعبه بنا کردند سخت //
مومنان از خانه اش بردند بخت
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گفتمت دنيا چو گوي كودكان //
بازي است و مردمان بر گِردِ آن
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حمله ایی آغاز شد با یک صدا//
لشکر دشمن ز نهر آمد جدا
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راز حق بشنو تو از آثار او //
از سلوک و راه و از گفتار او
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عاقبت دیگی ز مس غارت نمود //
دزدی اش را از سر عادت نمود
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نیمه شب دزدی در آمد خانه ایی//
خانه ایی پر رونق و افسانه ایی
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صاحب خر آمد و خر مرده دید //
جامه ی تن از غم خر می درید
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این شنیدم قصه ایی از شهر شام //
پیرمردی را خری بودش تمام
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صاحبان با حس بگویند هر بیان //
بردگان با علم خود گویند عیان
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گویمت از علم نو در آن زمان//
تا بدانی شکل آن را در عیان
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این نماز و این دعا بگذار چند //
نزد همسر شو مثال حبه قند
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مردکی بیچاره بود اندر نیاز //
همسر او روز و شب شد در نماز
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یک حقیقت را شنیدم از فرنگ //
در تعصب مردکی آمد به جنگ
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در گذر پیری بر او شد همقدم //
دید کفرش بیش باد او دم به دم
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بنده ایی میگفت این سان با خدا //
داده ایی ما را دو صد جور و جفا
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از مي و مستي و ميخانه نگوييد مرا
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ار دیگر مردمان را بار داد //
مردم فربه به دستش کار داد
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قد مردم را بکن همسان ما//
پس بزن از قد ایشان در خفا
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قصه ایی شیرین شنو از این زبان//
تا بگیری پند
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این چنین گویند روزی از قضا//
کدخدایی شد برون بعد از غذا
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قصه ایی می گویم از راس الامور //
آن رییس بی ک
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نیمه شب دزدی در آمد آن سرا //
مست و خندان دید صاحبخانه را
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زین سبب افسرده گردی یار ما //
هیچ ها جمع اند در انبار ما
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می دوید هر روزو شب بر گِرد آن //
تا رسد دستش جمالِ مهربان
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روزگاری دور نه، نزدیک ما //
اسب خامی بود اندر یک سرا
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گرنمی دانی بدان، این ظرف گل//
می تواند ره گشاید عمق دل
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حق چو آمد جای شد در جان او //
فطرت آدم بشد همسان او
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گر مرا لایق شمردی در جهان //
بندگی خواهم نمودت هر زمان
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ناگهان از گوشه ایی دیگر صدا //
زآتش آمد، گفت، ما را کن نگاه
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در خبر آمد که در روزی بزرگ //
کل عالم جمع شد جمعی سترگ
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فتم او را یار ِ اندر جان ما //
ای تو صد دُّرِ گران در خوان ما
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ناتوانی در قفس آمد به ببند//
راز صد ملک دگر گفتا به چند
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گفتمش بخشا گنه با فضل خویش //
گفت فاضل نیستم، فضلم نه بیش
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گفتمش مزدی ا گر باشد مرا //
می دهم سر در ره جانانه را
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فتنه ایی افتاد اندر آن بلاد
پس خروشیدند مردان از نهاد
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دانم آخر آن بهشتم در همینجا می رسد
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نا امید از آن شتر تاجر به راه //
با لباس و نوکر و آب و غ
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رده ایی همراه با ارباب بود //
سوی کعبه می دوید، بی تاب بود
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پیر فریادی زد و گفتا حلال //
قصه اش هرگز مگو اندر مقال
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عارفی شد در سفر با کوله بار //
می گذشت منزل به منزل در بهار
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آن یکی پرسید از خرج سفر //
خرج حج بادخل آن شد سر به سر
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والی ام گفتا چو حق دادی نهان//
پس ببند بر مردمان قفل دهان
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زائری از مکه آمد سوی ما //
جمع گشتیم گِردِ او با صد دعا
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حال بشنو حال آن بت در بیان //
تا ببینی حال سنگ و نقش آن
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دست او بودش بلند و پر توان //
دست دیگر را از او کردش نهان
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روزی آمد سوی سنگ اندرون//
در تراش سنگ شد آن مرد دون
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کد خدایی بود اندر روستا //
خانه اش شد سنگ سختی جایگاه
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رعجب بودم كه خانه مال اوست//
دشمنش داده نداده دست دوست
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خانه ي كعبه بنا کردند سخت //
مومنان از خانه اش بردند بخت
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گر تو را دستور او آمد ميان //
بي تعلل كن اجابت در زمان
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آمد از حق سوي موسي اين پيام//
گو كه قرباني كنند گاوي تمام
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چون كه نور آمد به جان مردمان //
اين چنين تدبير كردند ظالمان
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چون رسول حق پيام آغاز كرد//
باب جنگِ شرك و توحيد باز كرد
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شنو از دگر حكم قاضي كه بود //
جواني دگر حكم زندان نمود
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به حكم اندر آمد به زندان كسي //
دگر حكم، زندان فكند ناكسي
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زين تكثر در تعجب مرغكان //
وحدتي بود از تكثر در ميان
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چون كه وارستي ز عشق خاكيان //
مي شوي از جمله ي افلاكيان
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هر كسي كو در ره حق شد به ره //
مي رود تا راضي آيد جايگه
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زين سبب عاشق ز هر بندي جدا//
زين سبب عاشق نبيند جز خدا
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آري اي ياران چنين شد قصه مان //
مرغكان نشناخت سر از پايشان
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گفت چون شاد آمديد از خويشتن //
مرده ايد هر چند باشد جان به تن
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آن عقاب قصه کو گفتم ز پيش //
می شتابد با كسان در راه خويش
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چون سخن اينجا بشد حاكم بگفت
راست مي گويي رفيق نيمه خفت
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اين چنين دشت عقاب و دوستان//
بعد از اين بشنو ز جنگل داستان
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بذر آن انديشه ها برداشتند//
سر نوشت هر جماعت كاشتند
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قصه ديگر شنو از آن عقاب //
حرف حق را چون شنيدي برمتاب
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فخر حاكم بود در پيش كسان //
آن کسان بودند ذاتا چون خَسان
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عشق از سوي خدا آيد به ما//
هر چه از او آمدش گو مرحبا
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پس عقابش گفت آن من بوده ام //
خود به بند حكم تو بنموده ام
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قصه ديگر شنو از آن عقاب
ميدهيم اندرز ما با پيچ و تاب
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چون به حنگل شد عقاب قصه ها //
مرغکی را دید افتادش به چاه
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گر درختي شد نمو در خاك نرم //
نور خورشيدش نموده گرمِ گرم
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آن عقاب قصه ي ما كو سفر //
رفته بود از شهر ما تا آن دگر
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خسته بودي خواب بودي اي عزيز //
زين سبب درجا زدن ناشد تميز
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مست و هوشياري به ره شد در سفر //
اين يكي لنگان و چابك آن دگر
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